सियासी-फ़सल -२३
साम्प्रदायिक ताक़तें जिस तरह से हिंदू - मुसलमानो को भड़काकर मौजूदा स्थिति में अपनी सियासत साध रहे हैं, वह स्थिति तो मौजूदा रूप में जो बताया जा रहा है वैसा कभी नहीं रहा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हिंदुओ और मुसलमानो में कुछ बातों में महत्वपूर्ण फ़र्क़ है, लेकिन वैसे अंतर तो बंगलियो-तमिलों- महाराष्ट्रियनो-पंजाबी -गुजराती में भी है। इनके रहन-सहन , खान-पान, उत्सव , त्यौहार में फ़र्क़ है लेकिन साथ ही साथ ऐसे कई सूत्र भी है जो इन्हें बांधे रखते हैं। यही बात हिंदुओ और मुसलमानो पर भी लागू होती है , भारतीय और हिंदू- मुसलमानो के बीच के फ़र्क़ को जब उभारने की कोशिश हुई तो सर सैयद ने कहा था-
मेरे हिंदू भाई और मेरे सहधर्मी मुसलमान एक ही हवा में साँस लेते हैं, गंगा और यमुना का पावन पानी पीते हैं, अल्लाह ने जो इस देश को ज़मीन दी है, उसकी उपज खाते हैं। और साथ-साथ रहते हैं। हम दोनो ने ही अपने अपने पुराने रहन सहन और आदतों को छोड़ दिया है और जहाँ मुसलमानो ने हिंदुओ के अनेक रीति-रिवाजों को अपना लिया है, वहीं हिंदू भी मुसलमानी तौर -तरीक़ों को और परम्पराओं से प्रभावित हुए हैं।(निज़ामी नई दिल्ली पृष्ठ 144 )
हिंदू-मुस्लिम या दूसरे अल्पसंख्यकों के सामूहिक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि इस देश में रहने वाले किसी धर्म का उत्सव , आचार-विचार, खेल और मनोरंजन , जन्म से मृत्यु तक के कर्मकांड, संगीत, बोली-भाषा में इतनी समानता है कि यदि नाम और सरनेम नहीं बताया जाय तो कोई परख ही नहीं सकता कि कौन किस जाति या धर्म का है।
भारतीय समाज का अल्पसंख्यकों पर प्रभाव इतना ज़बरदस्त पड़ा है कि कई धर्मों में जाति प्रथा तक चल पड़ा। जबकि जाति प्रथा केवल हिंदुओ की ही देन है । इस्लाम या दूसरे धर्म की समानता की शिक्षा के बावजूद धर्मान्तरित मुस्लिम अपनी जाति विषयक ग्रंथियों को छोड़ नहीं पाते। हिंदुओ में शादियाँ तय करने के लिये जन्म पत्रियों का मिलान करने की प्रथा है तो भारतीय मुसलमानो में शिजरा या वंशवृक्ष देखने की प्रथा पड़ गई । सगाई समारोह, दुल्हा-दुल्हन का श्रिंगार , दूल्हे को हाथी - घोड़े में बिठाकर बाजे-गाजें के साथ बारात निकलना, नारियल फोड़ना, क़व्वाली या दूसरे प्रकार का गीत-संगीत के कार्यक्रम का आयोजन , दुल्हन की मायके से रूखसती का समारोह, दूल्हे के साथ दुल्हन के घरवालों की तरह-तरह की छेड़खानी ये सभी दूसरे धर्म ख़ासकर मुस्लिम धर्म के लोगों ने भी करना शुरू कर दिया। जबकि अरब या ईरानी, यहाँ तक कि तुर्की मुसलमानो से भी कोई समानता नहीं है। दुल्हन और उसके रिश्तेदारों के हाथ-पाँवो में मेहंदी रचाना विशिष्ट हिंदू समारोह है , जिसे मुसलमानो ने अपनाया है। इसी तरह बहुत से ग्रामीण क्षेत्र में तुर्कीन महिलाएँ भारतीय महिलाओं की तरह माँग सितारों से भरने लगी।
1931 की जनसंख्या रिपोर्ट में भारतीय मुसलमानो का उनके आर्थिक और सामाजिक स्थितियों के आधार पर वर्गीकरण किया गया । ब्रह्मणो की तरह अशरफ़, सबसे ऊँची जाति है , फिर सैयद, राजपूत, मियाँ और जुलाहा , दर्ज़ी, कसाई, हज्जाम, कुम्हार, तेली, धोबी के अलावा भी कई जातियाँ बनाई गई। आज भी भारतीय मुसलमानो में में जातियाँ हिंदुओ की तरह कठोर है और किसी अशरफ़ का किसी भंगी से शादी होना नामुमकिन है।
मुसलमानो में जतियों को लेकर कई समाजशास्त्रियों ने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि मुसलमानो में जातियाँ हिंदुओ से ही आई है। ज़्यादातर यह धर्मान्तरित मुसलमानो ने यह परम्परा चलाई जिसे धीरे-धीरे सभी मुसलमानो ने मानना शुरू कर दिया। यही वजह है कि सैयद भी किसी मिर्ज़ा या शेख़ या पठान से शादी करने से बचता है। समाज शास्त्रियों का दावा है कि निम्न वर्ग़िय में , हिंदुओ से ज़्यादा उप जातियाँ हैं, और वे आपस में शादी ब्याह भी नहीं करते। लेकिन इतनी जातीय विशेषता के बाद भी उनका एक साथ नमाज़ पढ़ना, रमज़ान के दिनो में सूर्योदय से सूर्यास्त तक रोज़ा रखना, एक ही ढंग से हज करना जारी है। मुसलमानो का चाहे कोई भी तबक़ा हो अशरफ़ हो या मोमिन , चाहे शिया हो या सुन्नी उन्हें इस्लाम के पाँच बुनियादी तत्वों को तो मानना ही पड़ता है, या मानते ही हैं।
इसी तरह भारतीय मुसलमान या ईसाई समाज के लोग अपने मृतकों की वार्षिक स्मृति में हिंदुओ की तरह बरसी तक मनाने लगे हैं। यही नहीं क़रीबी रिश्तेदार मृतक की क़ब्र पर फूल चढ़ाते हैं। इस रिवाज को परम्परावादी मुसलमान स्वीकार नहीं करते। और इसे बिदअत से हटकर नई सोच मानते हैं। कई मुसलमान ज़ियारत या तेरहवीं या चेहल्लुम मनाते हैं जबकि अरबी इसे हिक़ारत से देखते हैं। इसी तरह बालक की ख़तना कराने की विधि में हिंदू प्रभाव के चलते बच्चें को बढ़िया कपड़ों और गहनो से सजाया जाता है, जबकि अरब में यह एक सादी सी विधि है। कुछ वर्गों में तो भारतीय मुसलमान घोड़े पर सवार करवाकर जुलूस तक निकालते हैं।
एक और रिवाज है जो हिंदू रस्म की नक़ल है और वह है, बच्चों की शिक्षा संस्कार शुरू करवाने की रस्म,जिसे बिस्मिल्लाह कहा जाता है। उर्दू साहित्य में इसका विस्तृत विवरण है । इसी तरह मुस्लिम समाज विधवा विवाह का भी विरोध करते थे लेकिन अब वे भी इसे मान्यता देने लगे हैं, हालाँकि पैग़म्बर साहब ने उस पर आचरण किया था।
मुग़ल शासन ख़ासकर अकबर के ज़माने में तो जन समुदायों के बीच जो ताल्लुकात थे वह अपने आप में विलक्षण था।हिंदू धार्मिक ग्रंथो का फ़ारसी में अनुवाद बड़े पैमाने पर हुआ, जहांगीर और शाहजहाँ से लेकर दाराशिकोह तक यह सब चला । सूफ़ी संतो ने तो भक्ति गीत और संगीत पर नाचते गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (अजमेर), निज़ामुद्दीन औलिया (दिल्ली), बाबा फ़रीद (पंजाब) सहित ऐसे कई संतो की दरगाह है जहाँ हिंदू सहित अन्य दूसरे धर्म के लोग भी जाते हैं।
द राईज आफ मराठा पावर में एम जी रानाडे ने लिखा है-
हिंदू त्रिमूर्ति के अवतार दत्तात्रेय के उपासक अक्सर अपने भगवान को मुसलमान फ़क़ीर बाबा का बाना पहनाया करते थे। महाराष्ट्र की आम जनता के दिलों दिमाग़ पर भी यही प्रभाव काम करता था। जहाँ संत और धर्मोपदेशक , फिर वे ब्राह्मण हो या ब्रह्मणेत्तर , जनता को समझा रहे थे कि राम और रहीम को एक ही समझना चाहिये, कर्मकांड और जाति भेद के बंधन से मुक्त होना चाहिए।और मानव प्रेम और भगवान की भक्ति में ख़ुद को रमा देना चाहिये।
हिंदी एंड कल्चर आफ द इंडियन पीपुल में आर सी मजूमदार ने लिखा है-
मध्य युग में हिंदू और मुसलमान दोनो ही समुदाय के अनेक त्यौहार और उत्सव हुआ करते थे। जिन्हें वे बड़े उत्साह से मनाया करते थे। देश भर में उन्हें मनाने के तरीक़े आम तौर पर एक जैसे होते थे। अलबत्ता उनके लोकप्रियता के पैमाने और मनाए जाने के तरीक़ों में थोड़ी बहुत क्षेत्रिय विभिन्नताएँ आ जाती थी। हिंदुस्तान के मुसलमान अपने त्यौहारों को मनाने के लिए तरह-तरह की सजावटें , दीपमालाएँ, आतिशबाज़िया , शानदार जुलूस , सोना-चाँदी मोती, हीरा, जवाहरात का विपुल प्रदर्शन जैसे जो तरीक़े अपनाते थे , वे स्वाभाविक ही उनके हिंदू संस्कृति के सम्पर्क में आने के परिणाम थे।
मेरे हिंदू भाई और मेरे सहधर्मी मुसलमान एक ही हवा में साँस लेते हैं, गंगा और यमुना का पावन पानी पीते हैं, अल्लाह ने जो इस देश को ज़मीन दी है, उसकी उपज खाते हैं। और साथ-साथ रहते हैं। हम दोनो ने ही अपने अपने पुराने रहन सहन और आदतों को छोड़ दिया है और जहाँ मुसलमानो ने हिंदुओ के अनेक रीति-रिवाजों को अपना लिया है, वहीं हिंदू भी मुसलमानी तौर -तरीक़ों को और परम्पराओं से प्रभावित हुए हैं।(निज़ामी नई दिल्ली पृष्ठ 144 )
हिंदू-मुस्लिम या दूसरे अल्पसंख्यकों के सामूहिक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि इस देश में रहने वाले किसी धर्म का उत्सव , आचार-विचार, खेल और मनोरंजन , जन्म से मृत्यु तक के कर्मकांड, संगीत, बोली-भाषा में इतनी समानता है कि यदि नाम और सरनेम नहीं बताया जाय तो कोई परख ही नहीं सकता कि कौन किस जाति या धर्म का है।
भारतीय समाज का अल्पसंख्यकों पर प्रभाव इतना ज़बरदस्त पड़ा है कि कई धर्मों में जाति प्रथा तक चल पड़ा। जबकि जाति प्रथा केवल हिंदुओ की ही देन है । इस्लाम या दूसरे धर्म की समानता की शिक्षा के बावजूद धर्मान्तरित मुस्लिम अपनी जाति विषयक ग्रंथियों को छोड़ नहीं पाते। हिंदुओ में शादियाँ तय करने के लिये जन्म पत्रियों का मिलान करने की प्रथा है तो भारतीय मुसलमानो में शिजरा या वंशवृक्ष देखने की प्रथा पड़ गई । सगाई समारोह, दुल्हा-दुल्हन का श्रिंगार , दूल्हे को हाथी - घोड़े में बिठाकर बाजे-गाजें के साथ बारात निकलना, नारियल फोड़ना, क़व्वाली या दूसरे प्रकार का गीत-संगीत के कार्यक्रम का आयोजन , दुल्हन की मायके से रूखसती का समारोह, दूल्हे के साथ दुल्हन के घरवालों की तरह-तरह की छेड़खानी ये सभी दूसरे धर्म ख़ासकर मुस्लिम धर्म के लोगों ने भी करना शुरू कर दिया। जबकि अरब या ईरानी, यहाँ तक कि तुर्की मुसलमानो से भी कोई समानता नहीं है। दुल्हन और उसके रिश्तेदारों के हाथ-पाँवो में मेहंदी रचाना विशिष्ट हिंदू समारोह है , जिसे मुसलमानो ने अपनाया है। इसी तरह बहुत से ग्रामीण क्षेत्र में तुर्कीन महिलाएँ भारतीय महिलाओं की तरह माँग सितारों से भरने लगी।
1931 की जनसंख्या रिपोर्ट में भारतीय मुसलमानो का उनके आर्थिक और सामाजिक स्थितियों के आधार पर वर्गीकरण किया गया । ब्रह्मणो की तरह अशरफ़, सबसे ऊँची जाति है , फिर सैयद, राजपूत, मियाँ और जुलाहा , दर्ज़ी, कसाई, हज्जाम, कुम्हार, तेली, धोबी के अलावा भी कई जातियाँ बनाई गई। आज भी भारतीय मुसलमानो में में जातियाँ हिंदुओ की तरह कठोर है और किसी अशरफ़ का किसी भंगी से शादी होना नामुमकिन है।
मुसलमानो में जतियों को लेकर कई समाजशास्त्रियों ने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि मुसलमानो में जातियाँ हिंदुओ से ही आई है। ज़्यादातर यह धर्मान्तरित मुसलमानो ने यह परम्परा चलाई जिसे धीरे-धीरे सभी मुसलमानो ने मानना शुरू कर दिया। यही वजह है कि सैयद भी किसी मिर्ज़ा या शेख़ या पठान से शादी करने से बचता है। समाज शास्त्रियों का दावा है कि निम्न वर्ग़िय में , हिंदुओ से ज़्यादा उप जातियाँ हैं, और वे आपस में शादी ब्याह भी नहीं करते। लेकिन इतनी जातीय विशेषता के बाद भी उनका एक साथ नमाज़ पढ़ना, रमज़ान के दिनो में सूर्योदय से सूर्यास्त तक रोज़ा रखना, एक ही ढंग से हज करना जारी है। मुसलमानो का चाहे कोई भी तबक़ा हो अशरफ़ हो या मोमिन , चाहे शिया हो या सुन्नी उन्हें इस्लाम के पाँच बुनियादी तत्वों को तो मानना ही पड़ता है, या मानते ही हैं।
इसी तरह भारतीय मुसलमान या ईसाई समाज के लोग अपने मृतकों की वार्षिक स्मृति में हिंदुओ की तरह बरसी तक मनाने लगे हैं। यही नहीं क़रीबी रिश्तेदार मृतक की क़ब्र पर फूल चढ़ाते हैं। इस रिवाज को परम्परावादी मुसलमान स्वीकार नहीं करते। और इसे बिदअत से हटकर नई सोच मानते हैं। कई मुसलमान ज़ियारत या तेरहवीं या चेहल्लुम मनाते हैं जबकि अरबी इसे हिक़ारत से देखते हैं। इसी तरह बालक की ख़तना कराने की विधि में हिंदू प्रभाव के चलते बच्चें को बढ़िया कपड़ों और गहनो से सजाया जाता है, जबकि अरब में यह एक सादी सी विधि है। कुछ वर्गों में तो भारतीय मुसलमान घोड़े पर सवार करवाकर जुलूस तक निकालते हैं।
एक और रिवाज है जो हिंदू रस्म की नक़ल है और वह है, बच्चों की शिक्षा संस्कार शुरू करवाने की रस्म,जिसे बिस्मिल्लाह कहा जाता है। उर्दू साहित्य में इसका विस्तृत विवरण है । इसी तरह मुस्लिम समाज विधवा विवाह का भी विरोध करते थे लेकिन अब वे भी इसे मान्यता देने लगे हैं, हालाँकि पैग़म्बर साहब ने उस पर आचरण किया था।
मुग़ल शासन ख़ासकर अकबर के ज़माने में तो जन समुदायों के बीच जो ताल्लुकात थे वह अपने आप में विलक्षण था।हिंदू धार्मिक ग्रंथो का फ़ारसी में अनुवाद बड़े पैमाने पर हुआ, जहांगीर और शाहजहाँ से लेकर दाराशिकोह तक यह सब चला । सूफ़ी संतो ने तो भक्ति गीत और संगीत पर नाचते गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (अजमेर), निज़ामुद्दीन औलिया (दिल्ली), बाबा फ़रीद (पंजाब) सहित ऐसे कई संतो की दरगाह है जहाँ हिंदू सहित अन्य दूसरे धर्म के लोग भी जाते हैं।
द राईज आफ मराठा पावर में एम जी रानाडे ने लिखा है-
हिंदू त्रिमूर्ति के अवतार दत्तात्रेय के उपासक अक्सर अपने भगवान को मुसलमान फ़क़ीर बाबा का बाना पहनाया करते थे। महाराष्ट्र की आम जनता के दिलों दिमाग़ पर भी यही प्रभाव काम करता था। जहाँ संत और धर्मोपदेशक , फिर वे ब्राह्मण हो या ब्रह्मणेत्तर , जनता को समझा रहे थे कि राम और रहीम को एक ही समझना चाहिये, कर्मकांड और जाति भेद के बंधन से मुक्त होना चाहिए।और मानव प्रेम और भगवान की भक्ति में ख़ुद को रमा देना चाहिये।
हिंदी एंड कल्चर आफ द इंडियन पीपुल में आर सी मजूमदार ने लिखा है-
मध्य युग में हिंदू और मुसलमान दोनो ही समुदाय के अनेक त्यौहार और उत्सव हुआ करते थे। जिन्हें वे बड़े उत्साह से मनाया करते थे। देश भर में उन्हें मनाने के तरीक़े आम तौर पर एक जैसे होते थे। अलबत्ता उनके लोकप्रियता के पैमाने और मनाए जाने के तरीक़ों में थोड़ी बहुत क्षेत्रिय विभिन्नताएँ आ जाती थी। हिंदुस्तान के मुसलमान अपने त्यौहारों को मनाने के लिए तरह-तरह की सजावटें , दीपमालाएँ, आतिशबाज़िया , शानदार जुलूस , सोना-चाँदी मोती, हीरा, जवाहरात का विपुल प्रदर्शन जैसे जो तरीक़े अपनाते थे , वे स्वाभाविक ही उनके हिंदू संस्कृति के सम्पर्क में आने के परिणाम थे।
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