सियासी-फ़सल -२२

धर्म-निरपेक्षता
अमेरिका के शिकागो में 11 सितंबर 1893 को विवेकानंद द्वारा दिए गए भाषण में बहुत कुछ ऐसा भी है जो आज की भारतीय स्थिति को सीख देता है। धर्म के नाम पर बढ़ती राजनीति के माहौल में भाषण के कुछ अंशों को याद करना बेहद जरूरी हो गया है।
विवेकानंद जी ने अपने भाषण की शुरुआत मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों कहकर कर की थी। जो बेहद पसंद किया गया था और पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गई थी। इसके बाद उन्होंने यह कहते हुए धन्यवाद किया कि मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं।
सके साथ ही उन्होंने कहा कि मेरा धन्यवाद उन वक्ताओं को भी है, जिन्होंने ये कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देश भारत से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। उन्होंने आगे कहा था कि हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा कि हिंदू धर्म का असली संदेश लोगों को अलग-अलग धर्म संप्रदायों के खांचों में बांटना नहीं, बल्कि पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोना है। उन्होंने कहा कि गीता में भगवान कृष्ण ने भी यही संदेश दिया था कि अवग-अलग कांच से होकर हम तक पहुंचने वाला प्रकाश एक ही है। ईश्वर ने भगवान कृष्ण के रूप में अवतार लेकर हिंदुओं को बताया: मोतियों की माला को पिरोने वाले धागे की तरह मैं हर धर्म में समाया हुआ हूं... तुम्हें जब भी कहीं ऐसी असाधारण पवित्रता और असामान्य शक्ति दिखाई दे, जो मानवता को ऊंचा उठाने और उसे सही रास्ते पर ले जाने का काम कर रही हो, तो समझ लेना मैं वहां मौजूद हूं।
कार्यक्रम में स्वामी विवेकानंद ने कई भाषण दिए थे, जिनमें से एक में स्वामी ने ये संदेश दिया कि पूरब की दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत धर्म से जुड़ी हुई नहीं है। उनके पास धर्म की कमी नहीं है, लेकिन भारत के लाखों पीड़ित जनता अपने सूखे हुए गले से जिस चीज के लिए बार-बार गुहार लगा रही है वो रोटी है। वो हमसे रोटी मांगते हैे, लेकिन हम उन्हें पत्थर पकड़ा देते हैं। भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देना उसका अपमान है।

धर्म-निरपेक्षता
धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को कहीं अक्षरस: परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन, सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव, सभी नागरिकों को समान अवसर और व्यवहार ही धर्म निरपेक्षता के मायने है। देश जब आज़ाद हुआ तो भले ही धर्म के नाम पर बँटवारे की स्वीकृति दी गई लेकिन, सच तो यह था कि वह धार्मिक बँटवारा क़तई नहीं था। 12 सौ साल के मिले जुले संस्कृति की मौजूदगी ने हमारी विभिन्नताओ को एक सूत्र में पिरो दिया था । पहनावा, खान-पान , बोली-भाषा और यहाँ तक की तीज-त्यौहार तक एक साथ मनाये जा रहे थे। विभाजन के दौर में भारत की एकता को तोड़ने की कोशिश ज़रूर हुई  लेकिन, इसे परिस्थितिजन्य बदक़िस्मती के रूप में इसलिए भी लेना चाहिये कि विभाजन के लिये बड़ी संख्या में न मुसलमान तैयार थे न हिंदू। इसलिए कई हिंदू वहाँ रह गए तो कई मुसलमान यहाँ।
ऐसे में संविधान निर्माताओं के सामने सबसे बड़ा सवाल था कि देश का संविधान ऐसा कैसे बनाया जाय जिससे इस देश में सबके लिए विकास का समान अवसर मिल सके। सवाल सिर्फ़ धर्म का नहीं था , उस दौर में जातीय संकीर्णता भी चरम पर था और छुआ-छूत के अलावा आर्थिक असमानता भी सिर चढ़कर बोल रहा था। हिटलर की श्रेष्ठता की लड़ाई ने पूरे विश्व को युद्ध में झोंक दिया था । ऐसे में उग्र हिंदुओ की उस बात को कैसे माना जा सकता था कि हिंदू ही श्रेष्ठ हैं। एक राष्ट्रीयता के उस दौर  भारत के संविधान को लेकर बहुधर्मी राष्ट्र व्यवस्था को बनाए रखने ही संविधान में धर्मनिरपेक्षता की वकालत की गई।
नये नवेले इस देश को विकास का जो पहिया लगाया जाना था , उसमें सब की भागीदारी ज़रूरी थी, धर्म और जात-पात को लेकर जिस तरह का तनाव था , उसके लिए धर्म निरपेक्षता ही वह औज़ार था जो इस देश को पुनः विकसित देशोंके समकक्ष खड़ा कर सकता था । यह एक तरह की चुनौती थी, क्योंकि एक तरफ़ वे लोग खड़े थे जो हिंदू राष्ट्र की वकालत करते हथियार उठाने तक तत्पर थे। जबकि हक़ीक़त में हिंदू-मुस्लिम एकता इस देश के हवा-पानी , मिट्टी, पेड़ सबमे समाहित था।
उग्र हिंदू संगठन इस बात का कड़ा विरोध कर रहे थे । तब भी वे मुसलमान शासकों के अत्याचार और विभाजन की वज़ह को लेकर एक नया राग छेड़े हुए थे। लेकिन उग्र हिंदुओ के इस संदेह पर जवाब देते हुए डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने 25 नवम्बर 1949 संविधान सभा के अपने समापन भाषण में कहा-
सिंध पर जब मुहम्मद बिन क़ासिम ने हमला किया तब बादशाह दाहिर के सेनापति ने क़ासिम के मध्यस्थों से रिश्वत ली थी और अपने बादशाह के पक्ष में लड़ने से इंकार कर दिया। वह जयचंद था जिसने मुहम्मद गोरी को हिंदुस्तान पर हमला करने और पृथ्वीराज से लड़ने का निमंत्रण दिया था। और अपनी व दूसरे सोलंकी राजाओं की मदद का वायदा किया था। जब शिवाजी, हिंदुओ की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे तब दूसरे मराठा सामंत और राजपूत राजा , मुग़ल बादशाहों के पक्ष में लड़ रहे थे। जब अंग्रेज़ , सिख शासकों का ख़ात्मा करने की कोशिश रहे थे , तब उनका मुख्यसेनापति गुलाब सिंह ख़ामोश बैठा रहा, और उसने सिख समुदाय को बचाने के लिए कोई मदद नहीं की। 1857 में जब हिंदुस्तान के एक बहुत बड़े हिस्से ने अंगरेजो के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई की घोषणा कर रखी थी तब सिख मौन दर्शकों की तरह सारी घटना देखते खड़े रहे।
डॉक्टर अम्बेडकर ने अपने सार गर्भित इस समापन भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि निजी स्वार्थ में जब व्यक्ति डूब जाता है तो फिर उसके लिए धर्म, जाति, समुदाय कुछ मायने नहीं रखता इसलिए देश का विकास सभी के साथ मिलकर ही किया जा सकता है।
ये सच है कि विभाजन ने हिंदुओ के मन में घोर अविश्वास पैदा किया लेकिन उग्र हिंदुओ ने इस घाव को बार-बार कूदेरने की कोशिश की , और न केवल मुसलमान बल्कि दूसरे अल्पसंख्यक भी उनके निशाने पर रहे। यह एक तरह की अजीबोग़रीब त्रासदी है कि जिन लोगों ने इस उम्मीद में अपनी जड़ो से अलग नहीं हुए कि उनका सब कुछ यहीं हैं। लेकिन उग्र हिंदू संगठनों ने ऐतिहासिक तथ्यों को बढ़ाचढ़ाकर या झूठा प्रचार बल्कि अल्पसंख्यकों की धार्मिक अवधारणों को भी ग़लत तरीक़े से पेश किया। जबकि “ डिस्टोरियंस फैलेसीज” नामक किताब में जी आर एलटन ने ऐतिहासिक सबूतों की विश्वसनीयता पर कहा है कि ऐतिहासिक सच्चाई को जानने में सबूतों की कमी या ब्यौरों की ख़ामी उतनी ख़तरनाक साबित नहीं होती जितनी की पूर्व निश्चित अवधारणाएँ।
जबकि यदि विभाजन का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट है कि अंग्रेज़ी शासन ने जान बूझकर उन मुद्दों को हवा दी ताकि हिंदू-मुसलमान के बीच संदेह गहरा हो जाये। अंग्रेज़ एक समुदाय के बीच दूसरा समुदाय का इस्तेमाल करते रहे ताकि जितनी देर तक सम्भव हो , सत्ता उनके हाथों में बनी रहे। और इस प्रक्रिया में जो कड़वाहट पैदा हुई वह कई क्षेत्र में आज तक क़ायम है।
लेकिन सच तो यह है कि इस कड़वाहट को सियासी जामा पहनाने की वजह से ही कई जगहों पर हालत बिगड़े, जबकि इतिहास को झाँके तो पाएँगे कि हिंदू धर्म ने इस्लाम को उतना ही प्रभावित किया , जितना की इस्लाम ने हिंदू धर्म को प्रभावित किया। यही नहीं ईसाई, बौद्ध , जैन, सिखधर्म ने भी एक दूसरे को प्रभावित किया। और ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि गाँव से लेकर शहर तक साथ-साथ रहने वाले और रोज़ाना सामाजिक व व्यापारिक संबंध रखने वाले एक दूसरे के सुख-दुःख में साझेदार होते थे। इसमें सभी धर्मों के गुरुओं , संतो और सूफ़ियों की भूमिका महत्वपूर्ण रही जो प्रेम और एकता के संदेश को ज़ोरदार ढंग से प्रस्तुत किया।
सभी धर्म गुरुओं ने मानव प्रेम पर बल दिया। मौलाना रूमी ने अपनी मसनवी में जिसे मुसलमान फ़ारसी भाषा के क़ुरान का सम्मान देते हैं, उसमें कहते हैं-
ओ मुसलमानो ! मैं क्या करूँ
मैं अपने पर कोई ठप्पा नहीं लगा सकता
मैं न तो हिंदू हूँ न यहूदी
और न तुम सा मुसलमान हूँ
और फिर भी जानना चाहते हो तुम मेरा मज़हब
तो सुनो ! मैं इश्क़ का आशिक़ हूँ
मेरी आशिक़ी सभी मज़हबों से परे है।
सिख धर्म के संस्थापक नानक देव ने भी एकता का संदेश देते हुए कहा था-
मुसलमानो का धर्म है- पैग़म्बर के आदेशों का पालन करना , उसे एक और एक मात्र विधाता मानना और अपने अहंकार को सरासर मिटा देना! इसलिए हे नानक ; जो सब पर रहम करे , सभी जीवों से एक सा बर्ताव करे वही अपने को सच्चा मुसलमान कह सकता है।
संत नामदेव ने तो अपनी देशी भाषा में अरबी और फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल किया , जबकि मध्ययुगीन भारत के महानतम संत कवि तुकाराम ने कहा है-
परम नामों में पहला है अल्लाह
उसे जपना न भूलो
अल्लाह सचमुच एक है
पैग़म्बर सचमुच एक है
वहाँ तुम एक हो
वहाँ तुम एक हो
ओ मित्र! वहाँ न मैं रह जाता है
न तु रह जाता है ?
इसी तरह स्वामी रामानन्द ने तो प्रेम और सद्भावना का संदेश जन-जन तक पहुँचाने का अद्भुत काम किया। उनके 12 शिष्यों में से कबीर थे कबीर ने ग्रामीण बोली में एकता का संदेश देते हुए हुए धार्मिक आडंबरों पर इतना ज़बर्दस्त प्रहार किया कि लोग उन्हें आज भी सदगुरु मानकर पूजते हैं । कबीर ने कहा कि व्यक्ति का अंतर्मन ही मस्जिद या मंदिर होता है, उन्होंने अपनी जाति बताने तक से इंकार कर दिया था । इसी तरह रामानन्द जी के एक अन्य शिष्य दादू ने जन्मजात मुसलमान होते हुए एकता की नई मिसाल पेश की। दादू के बारे में द इंडियन वे - नामक किताब में जान एम कोलर ने कहा है-
जब भारतीय भूमि में मुसलमानो को सच्चा आध्यात्मिक अन्वेषक और सच्चा धार्मिक संत पुरुष माना जाता था तब उन्हें एक विशाल धार्मिक परिवार के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता था और संत के रूप में उनका सम्मान किया जाता था। बाद में सत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी में, जब हिंदू और मुसलमानो के बीच विरोध की भावना तीव्र होने लगी , जिसकी वजह राजनीति थी , तो हिंदुओ ने अक्सर बड़ी आसानी से इसमें से कुछ संतो के इस्लामी अतितो को भुला दिया। और कुछ मामलों , दादू के मामले में तो पक्के तौर पर, जानबूझकर ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को झुठलाया ताकि उनके इस्लामी मूल को मिटा दिया जा सके।

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