सियासी-फ़सल -२०
संविधान पर प्रहार
भारत का संविधान
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसी आधार पर भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र कहा जाता है। भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेद , 12 अनुसूचियाँ शामिल है। यह दो साल ग्यारह महीने अट्ठारह दिन में बनकर तैयार हुआ था। जनवरी 1948 में संविधान का पहला प्रारूप चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया। 4 नवम्बर 1948 से शुरू हुई यह चर्चा तक़रीबन 32 दिनो तक चली थी । इस अवधि के दौरान 7635 संशोधन प्रस्तावित किए गए जिनमे से 2473 पर विस्तार से चर्चा हुई।
इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारतीय संविधान को मूर्त रूप देने में हमारे पूरखों ने कितनी मेहनत की और तब कहीं जाकर इस देश को एक सूत्र में बाँधने का सपना पूरा हुआ। इस दौर में अंगरेजो ने कई और देशों को आज़ाद किया लेकिन भारत ने जो लोकतंत्र स्थापित कर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सत्ता चुनने का अधिकार दिया , वह गांधी नेहरु पटेल अम्बेडकर मौलाना आज़ाद सहित कई नेताओ का कमाल था।
इसके बावजूद वे उग्र हिंदू जो इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने तत्पर थे उन लोगों ने हमेशा ही संविधान का मखौल उड़ाया । दरअसल उनकी निष्ठा संविधान के प्रति रही और न ही लोकतंत्र में ही उनकी निष्ठा रही। वे आज़ादी के पहले ही दिन से इस देश के अल्पसंख्यकों और संविधान के प्रति घृणा रखते थे। लेकिन धर्म निरपेक्षता की ताक़त ने इस देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्य रखा वरना उग्र हिंदू तो इस देश को कब का गृह युद्ध में ढकेल चुके होते। ये वही कुंठित हिंदू हैं जो न केवल अल्पसंख्यकों से घृणा रखते हैं बल्कि दलित-आदिवासी और पिछड़ो तक को हिक़ारत की दृष्टि से देखते हैं।
इंडियन पोलिटिकल थाट नामक पुस्तक में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रीयता पर लिखे अपने एक निबंध में कहा है-
भारत वर्ष विशाल है और यहाँ जातीय विविधता बहुत अधिक है। असल में वह अनेक देशों की पैकबंद कर बनाया गया एक भौगोलिक पात्र है। वह यूरोप से इस अर्थ में विपरीत है कि वह यों तो अनेक है पर असल में हैं एक ही देश। इस प्रकार यूरोप को अपनी संस्कृति और विकास में एक ही शक्ति का फ़ायदा तो मिला ही है साथ ही अनेक की शक्ति का भी लाभ है। इसके विपरीत, भारत को चूँकि वह स्वाभाविक रूप से अनेक है फिर भी संयोग से एक है, हमेशा ही अपनी विविधता की ढिलाई और अपनी एकता की कमज़ोरी की वजह से नुक़सान होता रहा है। सच्ची एकता तो एक गोल ग्लोब की तरह होती है जो अपने बोझ को सहज ही ढोते हुए घूमती - लुढ़कती रहती है, जबकि विविधता तो एक बहकोनिय वस्तु है जिसे पूरी ताक़त के साथ खींचना और धकेलना पड़ता है । अलबत्ता , भारत को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि यह भिन्नता- विविधता उसने ख़ुद पैदा नहीं की है, वरन उसे अपने इतिहास की शुरुआत से इसे एक तथ्य के रूप में स्वीकार करके चलना पड़ा है।
लेकिन संप्रदायिकता के रास्ते पर चलने वालों ने इस देश के संविधान को दिल से कभी नहीं स्वीकारा और जब वे संविधान को नहीं स्वीकार पा रहे हैं तो फिर उनसे जाति और धर्म को स्वीकार करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसलिए उग्र हिंदुओ ने आज़ादी के बाद से आरक्षण के नाम पर दलित-आदिवासियों और पिछड़ो के ख़िलाफ़ विषवमन किया । तो अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होने की कोशिश को तुष्टिकरण का नाम देकर संप्रदायिकता को हवा दी।
उग्र हिंदुत्व का संविधान के प्रति घृणा का इतना उदाहरण है कि आप लिखते-लिखते थक जाएँगे। उनके लिए संविधान केवल अल्पसंख्यकों और दलित-आदिवासियों के हित साधने वाली किताब है। इसलिए वे सरे आम यह कहने से भी गुरेज़ नहीं करते कि चार देशों के ठीक-ठीक बातो को काँपी-पेस्ट कर दी गई। जो लोग इस तरह की बातें करते है, क्या वे देश द्रोही नहीं हैं।
संविधान के निर्माण को लेकर इस तरह की टिप्पणी करने वालों के बारे में जब आप पता करेंगे तो पाएँगे , इस तरह की बात वही लोग करते हैं जो संप्रदायिकता को हवा देते हैं और हिंदुत्व को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए बाक़ी धर्मों की आलोचना करते हैं।
संविधान के प्रति इनकी नफ़रत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन्हें अपनी संस्थाओ में तिरंगा झंडा लगाने तक से परहेज़ होता है। इसी तरह डॉक्टर अम्बेडकर को ये लोग संविधान निर्माता नहीं मानते तो महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानने से परहेज़ करते हैं। जबकि जो सुभाष बाबू ने पहली बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा था , उसकी राजनैतिक स्वार्थ वश जयकार कर देशप्रेमी का ढोंग करते हैं। इनके लिए राष्ट्रवाद का मतलब सिर्फ़ हिंदू है।
इन उग्र हिंदुओ का संविधान के प्रति घृणा नया नहीं है। हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे इन तपको ने प्रारंभ से ही संविधान में सबके प्रति बराबरी का दर्जा देने को लेकर विरोध करते रहे हैं। ये वही लोग हैं जो आज़ादी के आंदोलन से अपने को दूर रखते हुए तब भी टू नेशन थ्योरी का समर्थन करते थे। ऐसा कोई वक़्त नहीं रहा जब ये संविधान की भावना पर तीखे प्रहार नहीं किए हो इनका हर शब्द संविधान की मूल भावना का मखौल उड़ाने के लिए होता था।
एक सुप्रसिद्ध सामाजिक सुधारक एलेक्सी तोकेविले के मुताबिक़-
जनतंत्र हर व्यक्ति को अपने पूर्वजों का विस्मरण करवा देता है, लेकिन बदक़िस्मती से भारत में यह ठीक उलटे तरीक़े से काम कर रहा है। यह नेताओ के लिए अखाड़ा बना हुआ है जिसमें सरकार या राजनैतिक पार्टियों की कार्यप्रणाली को सुधारने या आर्थिक या वर्गीय हितों के निर्धारण का सही समाधान ढूँढने की बजाय सांप्रदायिक संघर्षों या जातिवादी मुठभेड़ों का ख़तरनाक खेल खेला जाता है। नेताओ की ओर से जनता को मानवीय , सर्वदेशीय और उदार विचारो को पनपने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। सिर्फ़ बाहरी, छिलका ही छिलका है, अंदर का सार तत्व ग़ायब है।
भारत का संविधान
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसी आधार पर भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र कहा जाता है। भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेद , 12 अनुसूचियाँ शामिल है। यह दो साल ग्यारह महीने अट्ठारह दिन में बनकर तैयार हुआ था। जनवरी 1948 में संविधान का पहला प्रारूप चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया। 4 नवम्बर 1948 से शुरू हुई यह चर्चा तक़रीबन 32 दिनो तक चली थी । इस अवधि के दौरान 7635 संशोधन प्रस्तावित किए गए जिनमे से 2473 पर विस्तार से चर्चा हुई।
इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भारतीय संविधान को मूर्त रूप देने में हमारे पूरखों ने कितनी मेहनत की और तब कहीं जाकर इस देश को एक सूत्र में बाँधने का सपना पूरा हुआ। इस दौर में अंगरेजो ने कई और देशों को आज़ाद किया लेकिन भारत ने जो लोकतंत्र स्थापित कर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सत्ता चुनने का अधिकार दिया , वह गांधी नेहरु पटेल अम्बेडकर मौलाना आज़ाद सहित कई नेताओ का कमाल था।
इसके बावजूद वे उग्र हिंदू जो इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने तत्पर थे उन लोगों ने हमेशा ही संविधान का मखौल उड़ाया । दरअसल उनकी निष्ठा संविधान के प्रति रही और न ही लोकतंत्र में ही उनकी निष्ठा रही। वे आज़ादी के पहले ही दिन से इस देश के अल्पसंख्यकों और संविधान के प्रति घृणा रखते थे। लेकिन धर्म निरपेक्षता की ताक़त ने इस देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्य रखा वरना उग्र हिंदू तो इस देश को कब का गृह युद्ध में ढकेल चुके होते। ये वही कुंठित हिंदू हैं जो न केवल अल्पसंख्यकों से घृणा रखते हैं बल्कि दलित-आदिवासी और पिछड़ो तक को हिक़ारत की दृष्टि से देखते हैं।
इंडियन पोलिटिकल थाट नामक पुस्तक में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रीयता पर लिखे अपने एक निबंध में कहा है-
भारत वर्ष विशाल है और यहाँ जातीय विविधता बहुत अधिक है। असल में वह अनेक देशों की पैकबंद कर बनाया गया एक भौगोलिक पात्र है। वह यूरोप से इस अर्थ में विपरीत है कि वह यों तो अनेक है पर असल में हैं एक ही देश। इस प्रकार यूरोप को अपनी संस्कृति और विकास में एक ही शक्ति का फ़ायदा तो मिला ही है साथ ही अनेक की शक्ति का भी लाभ है। इसके विपरीत, भारत को चूँकि वह स्वाभाविक रूप से अनेक है फिर भी संयोग से एक है, हमेशा ही अपनी विविधता की ढिलाई और अपनी एकता की कमज़ोरी की वजह से नुक़सान होता रहा है। सच्ची एकता तो एक गोल ग्लोब की तरह होती है जो अपने बोझ को सहज ही ढोते हुए घूमती - लुढ़कती रहती है, जबकि विविधता तो एक बहकोनिय वस्तु है जिसे पूरी ताक़त के साथ खींचना और धकेलना पड़ता है । अलबत्ता , भारत को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि यह भिन्नता- विविधता उसने ख़ुद पैदा नहीं की है, वरन उसे अपने इतिहास की शुरुआत से इसे एक तथ्य के रूप में स्वीकार करके चलना पड़ा है।
लेकिन संप्रदायिकता के रास्ते पर चलने वालों ने इस देश के संविधान को दिल से कभी नहीं स्वीकारा और जब वे संविधान को नहीं स्वीकार पा रहे हैं तो फिर उनसे जाति और धर्म को स्वीकार करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसलिए उग्र हिंदुओ ने आज़ादी के बाद से आरक्षण के नाम पर दलित-आदिवासियों और पिछड़ो के ख़िलाफ़ विषवमन किया । तो अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होने की कोशिश को तुष्टिकरण का नाम देकर संप्रदायिकता को हवा दी।
उग्र हिंदुत्व का संविधान के प्रति घृणा का इतना उदाहरण है कि आप लिखते-लिखते थक जाएँगे। उनके लिए संविधान केवल अल्पसंख्यकों और दलित-आदिवासियों के हित साधने वाली किताब है। इसलिए वे सरे आम यह कहने से भी गुरेज़ नहीं करते कि चार देशों के ठीक-ठीक बातो को काँपी-पेस्ट कर दी गई। जो लोग इस तरह की बातें करते है, क्या वे देश द्रोही नहीं हैं।
संविधान के निर्माण को लेकर इस तरह की टिप्पणी करने वालों के बारे में जब आप पता करेंगे तो पाएँगे , इस तरह की बात वही लोग करते हैं जो संप्रदायिकता को हवा देते हैं और हिंदुत्व को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए बाक़ी धर्मों की आलोचना करते हैं।
संविधान के प्रति इनकी नफ़रत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन्हें अपनी संस्थाओ में तिरंगा झंडा लगाने तक से परहेज़ होता है। इसी तरह डॉक्टर अम्बेडकर को ये लोग संविधान निर्माता नहीं मानते तो महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानने से परहेज़ करते हैं। जबकि जो सुभाष बाबू ने पहली बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा था , उसकी राजनैतिक स्वार्थ वश जयकार कर देशप्रेमी का ढोंग करते हैं। इनके लिए राष्ट्रवाद का मतलब सिर्फ़ हिंदू है।
इन उग्र हिंदुओ का संविधान के प्रति घृणा नया नहीं है। हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे इन तपको ने प्रारंभ से ही संविधान में सबके प्रति बराबरी का दर्जा देने को लेकर विरोध करते रहे हैं। ये वही लोग हैं जो आज़ादी के आंदोलन से अपने को दूर रखते हुए तब भी टू नेशन थ्योरी का समर्थन करते थे। ऐसा कोई वक़्त नहीं रहा जब ये संविधान की भावना पर तीखे प्रहार नहीं किए हो इनका हर शब्द संविधान की मूल भावना का मखौल उड़ाने के लिए होता था।
एक सुप्रसिद्ध सामाजिक सुधारक एलेक्सी तोकेविले के मुताबिक़-
जनतंत्र हर व्यक्ति को अपने पूर्वजों का विस्मरण करवा देता है, लेकिन बदक़िस्मती से भारत में यह ठीक उलटे तरीक़े से काम कर रहा है। यह नेताओ के लिए अखाड़ा बना हुआ है जिसमें सरकार या राजनैतिक पार्टियों की कार्यप्रणाली को सुधारने या आर्थिक या वर्गीय हितों के निर्धारण का सही समाधान ढूँढने की बजाय सांप्रदायिक संघर्षों या जातिवादी मुठभेड़ों का ख़तरनाक खेल खेला जाता है। नेताओ की ओर से जनता को मानवीय , सर्वदेशीय और उदार विचारो को पनपने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। सिर्फ़ बाहरी, छिलका ही छिलका है, अंदर का सार तत्व ग़ायब है।
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