सियासी-फ़सल -१५
इसी तरह कट्टर हिंदू संगठन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को लेकर आपत्ति करता है ताकि भारत के धर्म निरपेक्षता पर प्रहार कर सके । तीन तलाक़ से लेकर ऐसे कई मुद्दों को शिकायत करते हैं कि मुसलमानो के तुष्टिकरण की नीति के कारण देश की आर्थिक स्थिति गड़बड़ा रही है और हिंदुओ का हक़ छीना जा रहा है।
सबसे पहली बात तो यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ जो वर्तमान स्थिति में है वह क़ुरान पर आधारित ही नहीं है। इसका मुख्य स्रोत फ़तुहात-ए-आलमगिरी में मौजूद फ़ैसले हैं। ब्रिटिश राज के दौरान प्रिवी काउंसिल के निर्णयो द्वारा इसमें फेरबदल किए गए थे। यही वजह है कि विभिन्न इस्लामी राष्ट्रों द्वारा क्रियान्वित शरीयत में भिन्नताएँ देखने को मिलती है। शरीयत के अंतर्गत विवाह-तलाक़ मेंहर और भरण पोषण से सम्बंधित क़ानून में संशोधन की गुंजाईश तो है लेकिन यहाँ के मुसलमानो को ऐसे किसी परिवर्तन के लिए डराया जाता है।
डॉक्टर अम्बेडकर ने मुस्लिमों में सुधार के लिए हिंदुओ को ही मुख्य अवरोधक बताते हुए कहा था-
भारत के बाहर सभी मुस्लिम राष्ट्रों में जो हलचल और आंदोलन हो रहे हैं, ज़िंदगी के हर क्षेत्र में अनवेंषन की मानसिकता , परिवर्तन की चेतना, सुधार की आकांक्षा दिखाई पड़ती है तो फिर उसकी वजह क्या है ? असल में तुर्की में जो सामाजिक सुधार हुए हैं , वे नितांत क्रांतिकारी हैं। अगर इन देशों में मुसलमानो की राह में इस्लाम बाधा नहीं बनता तो फिर वह हिंदुस्तान के मुसलमानो की राह में बाधा क्यों बन रहा है ? निश्चित ही भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक एवं राजनैतिक गतिहीनता के पीछे कोई विशेष वजह होनी चाहिए। यह विशेष वजह क्या हो सकती है ? मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय मुसलमानो में परिवर्तन की चेतना का अभाव के पीछे जो वजह है वह भारत में उसकी विचित्र - विशिष्ट स्थिति! वह एक ऐसे सामाजिक वातावरण में अवस्थित है जो मुख्यतया हिंदू हैं। हिंदू वातावरण सदैव ख़ामोशी से लेकिन सुनिश्चित रूप से उस पर अतिक्रमण करता रहता है। ( मुस्लिम इंडिया- मई )
दरअसल धार्मिक आस्था को मानव के साथ ही साथ विकसित होना होता है लेकिन राजनैतिक चालबाज़ी में फँसकर मुसलमान किसी भी तरह के परिवर्तन पर आपत्ति करने लगे । दकियासुनी मुल्ला -मौलवियो ने शरीयत को ग़लत ढंग से पेश किया और पुराने विचारों से चिपके रहने के लिए हिंदुत्व के ख़ौफ़ को सामने रखा।
जबकि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण के लिए कट्टर हिंदुओ ने इन मुद्दों को बार-बार उठाया ताकि मुसलमान इस पर प्रतिक्रिया दे और मुसलमानो के प्रतिक्रिया देते ही हिंदुओ को एक जुट किया जा सके। इन सियासी खेल की वजह से मुसलमान जो धर्म निरपेक्ष हैं वे भी इस डर से चुप हो गए कि कहीं उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी न कर दिया जाये।
हिंदू- मुस्लिम एकता में अड़चन पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक ताक़तों ने उन मुद्दों को भी हवा दी जो हिंदुओ को बुरा लगे। जैसे कहा जाता है कि मुसलमानो में देश भक्ति की भावना की कमी होती है इसलिए वे वन्दे मातरम और भारत माता की जय बोलने से परहेज़ करते है उनके लिए इस्लाम सर्वोपरि होता है। इसी तरह गौ माँस के भक्षण को आए दिन मुद्दे बनाए जाते हैं जबकि हक़ीक़त यह है कि जो भी लोग गौ माँस का भक्षण करते हैं उनका उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है बल्कि यह सस्ता होता है इसलिए गौ माँस का सेवन करते हैं । और गौ माँस सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं खाते बल्कि ईसाई व कई अन्य समाज के लोग भी खाते हैं।
इसी तरह धारा 370 को कश्मीर में लागू किए जाने के विरोध में कहा जाता था कि ग़ैर कश्मीरी घाटी में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते लेकिन ऐसी निषेधाज्ञा तो हिमाचल प्रदेश, नागालैंड और मिज़ोरम जैसे राज्यों में भी है। सड़कों पर नमाज़ पढ़ना भी मुद्दा हो जाता है और इसे मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम दिया जाता है । इसी तरह हिंदी-उर्दू विवाद में भी मुस्लिम तुष्टिकरण की परछाईं देखी जाती है। ऐसे कितने ही मामले हैं जिस पर अल्पसंख्यकों को छूट दिए जाने पर हिंदू कट्टरवादी इसे मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम देकर संप्रदायिकता का ज़हर बोते हैं, जबकि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी चिंता जताई है और कहा है कि अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधा को तुष्टिकारण कहना पूर्वाग्रह की चरम सीमा है।
रिचर्ड एलन की किताब “ माइनोटीज “ में कहा गया है-
दुनिया के किसी भी हिस्से के पास अब इफ़रात वक़्त नहीं रह गया है, वक़्त तो हाथ से निकल चुका है। अल्पसंख्यकों के अधिकारो को यह मानकर दबाया नहीं जा सकता है कि वे सिर्फ़ मुजरियाना गतिविधियाँ हैंया वैध माँगे तो हैं लेकिन उन्हें व्यापक जनसमर्थन प्राप्त नहीं हैं - यह अहसास होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों और राष्ट्रविहीन लोगों की माँगे बढ़ते ही जाएगी और अगर उनका हल नहीं निकाला गया तो उससे ऐसे उग्रवाद का जन्म होगा जो भावी पीढ़ियों को संत्रस्त करता रहेगा। इसके अलावा, इन नियंताओ को समझौते और बातचीत के एक बुनियादी कठिन सिद्धांत को मानना ही पड़ेगा- जिन हिंसक गतिविधियों के असंतोष को कारणीभूत माना जा रहा है सिर्फ़ उनकी वजह से शांतिपूर्ण समाधान के लिए की जाती बातचीत को ख़त्म नहीं किया जा सकता।
ऐसे में साफ़ है कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हर सरकार को कुछ न कुछ अतिरिक्त करना ही चाहिये और अतिरिक्त न भी करे तो उनके पहचान की रक्षा के उपाय तो किए ही जाने चाहिए।
लेकिन साम्प्रदायिक ताक़तें जानबूझकर ऐसे मुद्दों को हवा देते रहते हैं ताकि सियासी ड्रामा खेला जा सके ।
जैसे मुसलमानो को लेकर यह अवधारणा फेलाई जाती है कि वे मूर्ति पूजा के घोर विरोधी होने के कारण हिंदुओ से नफ़रत करते हैं और मौक़ा आने पर अपने नफ़रत को हिंसा में बदल देते हैं।
यह सच है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के विरोधी हैं लेकिन मूर्ति पूजा का विरोधी होने का मतलब हिंदुओ का विरोधी कैसे हो सकता है, और यदि ऐसा है तो दयानंद सरस्वती , राजा राम मोहन राय , स्वामी राम कृष्ण परमहंस से लेकर गोरखपुर मठ के अनुयायी और आर्यसमाजी सभी मूर्ति पूजा के विरोधी हैं। दयानंद सरस्वती ने तो मूर्ति पूजा का उग्र विरोध करते हुए कहा था कि क्या वेदों में मूर्ति पूजा है? उन्होंने तो अपने अनुयायियों से यहाँ तक कहा था कि जहाँ भी मूर्तियाँ मिले उनको नष्ट कर दो। स्वामी विवेकानंद जी ने तो मूर्ति पूजा को उच्च आध्यात्मिक सत्यो को ग्रहण करने में असमर्थ अविकसित मानस का चिन्ह बताया था।
मूर्ति पूजा के प्रति इस्लाम के विरोध का अपना अलग नज़रिया है। सातवी सदी के अरब में अलग-अलग कबिलाइयो के अलग-अलग देवी देवता थे। मक्का के घर-घर में अपना-अपना देवता था, जिसकी घरवाले पूजा करते थे। सब अपने-अपने देवता के दम पर ताक़त आज़माते थे। अक्सर लड़ाइयाँ होते रहती थी। तब पैग़म्बर ने आकर एक अल्लाह का संदेश दिया।
सबसे पहली बात तो यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ जो वर्तमान स्थिति में है वह क़ुरान पर आधारित ही नहीं है। इसका मुख्य स्रोत फ़तुहात-ए-आलमगिरी में मौजूद फ़ैसले हैं। ब्रिटिश राज के दौरान प्रिवी काउंसिल के निर्णयो द्वारा इसमें फेरबदल किए गए थे। यही वजह है कि विभिन्न इस्लामी राष्ट्रों द्वारा क्रियान्वित शरीयत में भिन्नताएँ देखने को मिलती है। शरीयत के अंतर्गत विवाह-तलाक़ मेंहर और भरण पोषण से सम्बंधित क़ानून में संशोधन की गुंजाईश तो है लेकिन यहाँ के मुसलमानो को ऐसे किसी परिवर्तन के लिए डराया जाता है।
डॉक्टर अम्बेडकर ने मुस्लिमों में सुधार के लिए हिंदुओ को ही मुख्य अवरोधक बताते हुए कहा था-
भारत के बाहर सभी मुस्लिम राष्ट्रों में जो हलचल और आंदोलन हो रहे हैं, ज़िंदगी के हर क्षेत्र में अनवेंषन की मानसिकता , परिवर्तन की चेतना, सुधार की आकांक्षा दिखाई पड़ती है तो फिर उसकी वजह क्या है ? असल में तुर्की में जो सामाजिक सुधार हुए हैं , वे नितांत क्रांतिकारी हैं। अगर इन देशों में मुसलमानो की राह में इस्लाम बाधा नहीं बनता तो फिर वह हिंदुस्तान के मुसलमानो की राह में बाधा क्यों बन रहा है ? निश्चित ही भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक एवं राजनैतिक गतिहीनता के पीछे कोई विशेष वजह होनी चाहिए। यह विशेष वजह क्या हो सकती है ? मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय मुसलमानो में परिवर्तन की चेतना का अभाव के पीछे जो वजह है वह भारत में उसकी विचित्र - विशिष्ट स्थिति! वह एक ऐसे सामाजिक वातावरण में अवस्थित है जो मुख्यतया हिंदू हैं। हिंदू वातावरण सदैव ख़ामोशी से लेकिन सुनिश्चित रूप से उस पर अतिक्रमण करता रहता है। ( मुस्लिम इंडिया- मई )
दरअसल धार्मिक आस्था को मानव के साथ ही साथ विकसित होना होता है लेकिन राजनैतिक चालबाज़ी में फँसकर मुसलमान किसी भी तरह के परिवर्तन पर आपत्ति करने लगे । दकियासुनी मुल्ला -मौलवियो ने शरीयत को ग़लत ढंग से पेश किया और पुराने विचारों से चिपके रहने के लिए हिंदुत्व के ख़ौफ़ को सामने रखा।
जबकि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण के लिए कट्टर हिंदुओ ने इन मुद्दों को बार-बार उठाया ताकि मुसलमान इस पर प्रतिक्रिया दे और मुसलमानो के प्रतिक्रिया देते ही हिंदुओ को एक जुट किया जा सके। इन सियासी खेल की वजह से मुसलमान जो धर्म निरपेक्ष हैं वे भी इस डर से चुप हो गए कि कहीं उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी न कर दिया जाये।
हिंदू- मुस्लिम एकता में अड़चन पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक ताक़तों ने उन मुद्दों को भी हवा दी जो हिंदुओ को बुरा लगे। जैसे कहा जाता है कि मुसलमानो में देश भक्ति की भावना की कमी होती है इसलिए वे वन्दे मातरम और भारत माता की जय बोलने से परहेज़ करते है उनके लिए इस्लाम सर्वोपरि होता है। इसी तरह गौ माँस के भक्षण को आए दिन मुद्दे बनाए जाते हैं जबकि हक़ीक़त यह है कि जो भी लोग गौ माँस का भक्षण करते हैं उनका उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है बल्कि यह सस्ता होता है इसलिए गौ माँस का सेवन करते हैं । और गौ माँस सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं खाते बल्कि ईसाई व कई अन्य समाज के लोग भी खाते हैं।
इसी तरह धारा 370 को कश्मीर में लागू किए जाने के विरोध में कहा जाता था कि ग़ैर कश्मीरी घाटी में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते लेकिन ऐसी निषेधाज्ञा तो हिमाचल प्रदेश, नागालैंड और मिज़ोरम जैसे राज्यों में भी है। सड़कों पर नमाज़ पढ़ना भी मुद्दा हो जाता है और इसे मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम दिया जाता है । इसी तरह हिंदी-उर्दू विवाद में भी मुस्लिम तुष्टिकरण की परछाईं देखी जाती है। ऐसे कितने ही मामले हैं जिस पर अल्पसंख्यकों को छूट दिए जाने पर हिंदू कट्टरवादी इसे मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम देकर संप्रदायिकता का ज़हर बोते हैं, जबकि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी चिंता जताई है और कहा है कि अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधा को तुष्टिकारण कहना पूर्वाग्रह की चरम सीमा है।
रिचर्ड एलन की किताब “ माइनोटीज “ में कहा गया है-
दुनिया के किसी भी हिस्से के पास अब इफ़रात वक़्त नहीं रह गया है, वक़्त तो हाथ से निकल चुका है। अल्पसंख्यकों के अधिकारो को यह मानकर दबाया नहीं जा सकता है कि वे सिर्फ़ मुजरियाना गतिविधियाँ हैंया वैध माँगे तो हैं लेकिन उन्हें व्यापक जनसमर्थन प्राप्त नहीं हैं - यह अहसास होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों और राष्ट्रविहीन लोगों की माँगे बढ़ते ही जाएगी और अगर उनका हल नहीं निकाला गया तो उससे ऐसे उग्रवाद का जन्म होगा जो भावी पीढ़ियों को संत्रस्त करता रहेगा। इसके अलावा, इन नियंताओ को समझौते और बातचीत के एक बुनियादी कठिन सिद्धांत को मानना ही पड़ेगा- जिन हिंसक गतिविधियों के असंतोष को कारणीभूत माना जा रहा है सिर्फ़ उनकी वजह से शांतिपूर्ण समाधान के लिए की जाती बातचीत को ख़त्म नहीं किया जा सकता।
ऐसे में साफ़ है कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हर सरकार को कुछ न कुछ अतिरिक्त करना ही चाहिये और अतिरिक्त न भी करे तो उनके पहचान की रक्षा के उपाय तो किए ही जाने चाहिए।
लेकिन साम्प्रदायिक ताक़तें जानबूझकर ऐसे मुद्दों को हवा देते रहते हैं ताकि सियासी ड्रामा खेला जा सके ।
जैसे मुसलमानो को लेकर यह अवधारणा फेलाई जाती है कि वे मूर्ति पूजा के घोर विरोधी होने के कारण हिंदुओ से नफ़रत करते हैं और मौक़ा आने पर अपने नफ़रत को हिंसा में बदल देते हैं।
यह सच है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के विरोधी हैं लेकिन मूर्ति पूजा का विरोधी होने का मतलब हिंदुओ का विरोधी कैसे हो सकता है, और यदि ऐसा है तो दयानंद सरस्वती , राजा राम मोहन राय , स्वामी राम कृष्ण परमहंस से लेकर गोरखपुर मठ के अनुयायी और आर्यसमाजी सभी मूर्ति पूजा के विरोधी हैं। दयानंद सरस्वती ने तो मूर्ति पूजा का उग्र विरोध करते हुए कहा था कि क्या वेदों में मूर्ति पूजा है? उन्होंने तो अपने अनुयायियों से यहाँ तक कहा था कि जहाँ भी मूर्तियाँ मिले उनको नष्ट कर दो। स्वामी विवेकानंद जी ने तो मूर्ति पूजा को उच्च आध्यात्मिक सत्यो को ग्रहण करने में असमर्थ अविकसित मानस का चिन्ह बताया था।
मूर्ति पूजा के प्रति इस्लाम के विरोध का अपना अलग नज़रिया है। सातवी सदी के अरब में अलग-अलग कबिलाइयो के अलग-अलग देवी देवता थे। मक्का के घर-घर में अपना-अपना देवता था, जिसकी घरवाले पूजा करते थे। सब अपने-अपने देवता के दम पर ताक़त आज़माते थे। अक्सर लड़ाइयाँ होते रहती थी। तब पैग़म्बर ने आकर एक अल्लाह का संदेश दिया।
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