सियासी-फ़सल -२१
यह इस देश का सबसे दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि संविधान का खुले आम मखौल उड़ाने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से सत्ता पीछे हटते रही, और साम्प्रदायिक ताक़तें धीरे-धीरे अपने पैर पसारते रहे। हालत यह थी कि राष्ट्रीयता के नाम पर पुनर्निरीक्षण के नए-नए तरीक़े अख़्तियार किए जाने लगे , एक जाति या एक समुदाय में लोगों को मतों से वंचित करने के लिए संविधान तक को निशाना बनाया गया। और यहाँ तक कहा गया कि संविधान में उल्लेखित धर्म निरपेक्ष केवल छलावा है। यह धर्म निरपेक्ष शब्द ही हटा देना चाहिए।
उग्र हिंदू संगठनो ने समय-समय पर संप्रदायिकता को हवा देने के नये-नये तरीक़े ईजाद करते रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार ख़ुशवंत सिंह ने द टाईम्स आफ इंडिया के अपने स्तम्भ में 8 अक्टूबर 1994 में पूछा था-
क्या संघ परिवार मस्जिदों को तोड़-तोड़कर उनके खंडहरों पर मंदिर बनाने और माँसाहारियों को खुराक देने वाले कसाई खानो को बंद करवाने के अलावा और कोई रचनात्मक काम नहीं सोच सकता? हमें एक अभिनव और समृद्ध भारत का निर्माण करना है । यह हम तभी कर सकते हैं , जब हमारी समूची जनता उसमें हाथ बँटाएगी न कि उन हाथो का इस्तेमाल एक दूसरे का गला घोटने या काटने के लिए करेगी।
लेकिन सच तो यह है कि उग्र हिंदू संगठनों का ध्येय हर हाल में सत्ता हासिल करना था और संविधान को अपने ढंग से चलाना था । वे अपनी संस्था के संविधान को ही भारत का संविधान मानते थे और भारतीय संविधान उनके लिए अल्पसंख्यकों की हितैषी है जो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
यही वजह है कि अपने मुद्दों को लेकर वे इतने आक्रामक रहे कि मॉब लिंचिंग करने से भी उन्हें परहेज़ नही रहा और न ही हत्यारे , बलात्कारी को सम्मान करने से ही गुरेज़ किया।
आज इस देश में दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदाय की स्थिति को देखते हुए विशेष प्रावधान किए ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो और वे समान रूप से अच्छा जीवन जी सके , लेकिन इसमें उग्र हिंदू संगठनों ने जिस तरह से बाधा पहुँचाने की कोशिश की , उनके ख़िलाफ़ कभी भी कठोर कार्रवाई नहीं हुई जिसका परिणाम है कि आज भी इस देश में दलितों पर सिर्फ़ इसलिए अत्याचार होता है क्योंकि वे बराबरी के साथ जीने की आशा रखते हैं। और यदि इस बारे में ईमानदारी से अध्ययन व शोध किया जाएगा तो पता चलेगा कि इसके पीछे वही उग्र हिंदू संगठन हैं जो संविधान को मानने से इंकार करते रहे हैं।
यही वजह है कि जब अल्पसंख्यकों ने मंडल आयोग द्वारा सिफ़ारिश की गई रूपरेखा के आधार पर शिक्षा एवं रोज़गार में आरक्षण की माँग की तो तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सरदार पटेल कमेटी का हवाला देकर इसका विरोध किया और चेतावनी दे डाली कि इससे एक बँटवारा हो जाएगा । यह सच है कि सरदार पटेल ने राजनीतिक आरक्षण के उन्मूलन की सिफ़ारिश की थी लेकिन साथ ही यह भी ख़ासतौर पर कहा था कि मुसलमानो को देश के जीवन में आर्थिक साझेदारी प्रदान करने की समुचित सावधानी बरतनी होगी। केंद्रीय कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने आडवाणी को जवाब देते हुए कहा था कि आडवाणी उस ताड़ के पेड़ के समान हैं जिसका क़द तो बड़ा होता है लेकिन जो किसी दुखियारे को छांव नहीं देता । उलटे वह सिर्फ़ कट्टर धर्मांधो को नशीली ताड़ी मुहैया कराता है । केसरी ने आगे कहा - मैं समझ सकता हूँ कि आडवाणी इतने कड़वे क्यों हैं? उनके कलेजे पर घाव लगा है , इसलिए उनमें बदले की भावना भर गई है , मैं उनकी ज़्यादा सराहना करता अगर वे पाकिस्तान में अपने नाते रिश्तेदारों को छोड़ न आए होते और वहीं रह गए होते और उन्होंने अल्पसंख्यकों की कैसी दुर्दशा होती है उसे भोगा समझा होता ।
अल्पसंख्यकों की देश में जो मौजूदा स्थिति है वह दयनीय और सोचनीय है। शिक्षा रोज़गार के आँकड़ो पर नज़र डाले तो पाएँगे कि उनकी इस बदतर हालत में सुधार के लिए कोई ख़ास प्रयास नहीं किया गया। और जब कभी भी सरकारों ने ऐसी कोशिश की तो उग्र हिंदुओ ने विभाजन का डर बताकर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का ऐसा खेल खेला कि धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने वालों ने अपने क़दम पीछे हटा लिए।
ऐसा ही एक दिलचस्प वाक़या को बताते हुए जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने कहा कि एक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम के चेयरमेन के तौर पर फ़िरोज़ गांधी ने फ़ैसला लिया कि वे चपरासी के सारे पद मुसलमानो और अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित रखेंगे। लेकिन उस पर तो अफ़सरों और दूसरे लोगों में खलबली मच गई और उन्होंने फ़िरोज़ गांधी से कहा “ साहब हम अपने-अपने घरों से दूर नौकरी के लिए यहाँ रह रहे हैं। हमारा खाना , पकाने और पानी भरने का काम चपरासी नहीं करेगा तो कौन करेगा ? आप चाहते हैं कि हम ये काम मुसलमानो और हरिजनो के हाथों करवाएँ ? हम तबादला ले लेंगे, या इस्तीफ़ा दे देंगे लेकिन ये नहीं करेंगे! मल्होत्रा ने लिखा है कि फ़िरोज़ गांधी ने हारकर हथियार डाल दिए ।
( बढ़ती दूरियाँ-गहराती दरार पृष्ठ-189 )
ये एक तरह का पूर्वाग्रह था जो हिंदुओ के एक वर्ग में आज भी पनप रहा है। संविधान के मूल भावना के विपरीत इस तरह की घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिल ही जाती है। लेकिन इस बारे में कोई भी सरकार ठोस निर्णय नहीं ले पाई । जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उग्र हिंदू संगठनों ने अल्पसंख्यकों के बरसों से चली आ रही परम्परा पर प्रहार करना शुरू कर दिया और जगह-जगह क़ानून तक हाथ में लेने लग गए।
वेलेंटाइन डे का विरोध के लिए बजरंग दल को सामने किया गया। बजरंग दल ने वेलेंटाइन डे का विरोध करने जगह-जगह क़ानून अपने हाथ में लेने लग गए। यहाँ तक कि इस दिन परिवार वालों का बाग़-बग़ीचे में जाना तक दूभर हो गया। छत्तीसगढ़ के रायपुर के बूढ़ागार्डन में तो बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने इतना उत्पात मचाया की शहर आज भी इस शर्मनाक घटना को नहीं भूल पाया है। गार्डन में बैठे भाई-बहन के साथ न केवल अभद्रता की गई बल्कि कालिख तक पोत दिया गया । हर साल वेलेंटाइन डे को लेकर बजरंग दल व दूसरे उग्र हिंदू संगठनों का यही रवैया होता है। उनके लिए संविधान-क़ानून से बढ़कर हिंदुत्व है।
इसी तरह 2014 के बाद गो रक्षा के नाम पर पूरे देश में जिस तरह का तांडव मचाया गया वह भी किसी से छिपा नहीं है। जगह-जगह गौ माँस के नाम पर उत्पात मचाया गया और हत्या तक की गई। साम्प्रदायिक शक्तियों के इस करतूत ने तो उत्तर प्रदेश में एक होनहार पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या तक कर दी , और ज़्यादातर मामलों में संघ के आनुवंशिक संगठनों से जुड़े लोग ही सामने आए।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक के मुख्यालय में एक वक़्त तक तिरंगा तक नहीं फहराया जाता था। और आज भी भगवा ध्वज को लेकर नये-नये कारण गिनाए जाते हैं।
उग्र हिंदू संगठनो ने समय-समय पर संप्रदायिकता को हवा देने के नये-नये तरीक़े ईजाद करते रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार ख़ुशवंत सिंह ने द टाईम्स आफ इंडिया के अपने स्तम्भ में 8 अक्टूबर 1994 में पूछा था-
क्या संघ परिवार मस्जिदों को तोड़-तोड़कर उनके खंडहरों पर मंदिर बनाने और माँसाहारियों को खुराक देने वाले कसाई खानो को बंद करवाने के अलावा और कोई रचनात्मक काम नहीं सोच सकता? हमें एक अभिनव और समृद्ध भारत का निर्माण करना है । यह हम तभी कर सकते हैं , जब हमारी समूची जनता उसमें हाथ बँटाएगी न कि उन हाथो का इस्तेमाल एक दूसरे का गला घोटने या काटने के लिए करेगी।
लेकिन सच तो यह है कि उग्र हिंदू संगठनों का ध्येय हर हाल में सत्ता हासिल करना था और संविधान को अपने ढंग से चलाना था । वे अपनी संस्था के संविधान को ही भारत का संविधान मानते थे और भारतीय संविधान उनके लिए अल्पसंख्यकों की हितैषी है जो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
यही वजह है कि अपने मुद्दों को लेकर वे इतने आक्रामक रहे कि मॉब लिंचिंग करने से भी उन्हें परहेज़ नही रहा और न ही हत्यारे , बलात्कारी को सम्मान करने से ही गुरेज़ किया।
आज इस देश में दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदाय की स्थिति को देखते हुए विशेष प्रावधान किए ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो और वे समान रूप से अच्छा जीवन जी सके , लेकिन इसमें उग्र हिंदू संगठनों ने जिस तरह से बाधा पहुँचाने की कोशिश की , उनके ख़िलाफ़ कभी भी कठोर कार्रवाई नहीं हुई जिसका परिणाम है कि आज भी इस देश में दलितों पर सिर्फ़ इसलिए अत्याचार होता है क्योंकि वे बराबरी के साथ जीने की आशा रखते हैं। और यदि इस बारे में ईमानदारी से अध्ययन व शोध किया जाएगा तो पता चलेगा कि इसके पीछे वही उग्र हिंदू संगठन हैं जो संविधान को मानने से इंकार करते रहे हैं।
यही वजह है कि जब अल्पसंख्यकों ने मंडल आयोग द्वारा सिफ़ारिश की गई रूपरेखा के आधार पर शिक्षा एवं रोज़गार में आरक्षण की माँग की तो तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सरदार पटेल कमेटी का हवाला देकर इसका विरोध किया और चेतावनी दे डाली कि इससे एक बँटवारा हो जाएगा । यह सच है कि सरदार पटेल ने राजनीतिक आरक्षण के उन्मूलन की सिफ़ारिश की थी लेकिन साथ ही यह भी ख़ासतौर पर कहा था कि मुसलमानो को देश के जीवन में आर्थिक साझेदारी प्रदान करने की समुचित सावधानी बरतनी होगी। केंद्रीय कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने आडवाणी को जवाब देते हुए कहा था कि आडवाणी उस ताड़ के पेड़ के समान हैं जिसका क़द तो बड़ा होता है लेकिन जो किसी दुखियारे को छांव नहीं देता । उलटे वह सिर्फ़ कट्टर धर्मांधो को नशीली ताड़ी मुहैया कराता है । केसरी ने आगे कहा - मैं समझ सकता हूँ कि आडवाणी इतने कड़वे क्यों हैं? उनके कलेजे पर घाव लगा है , इसलिए उनमें बदले की भावना भर गई है , मैं उनकी ज़्यादा सराहना करता अगर वे पाकिस्तान में अपने नाते रिश्तेदारों को छोड़ न आए होते और वहीं रह गए होते और उन्होंने अल्पसंख्यकों की कैसी दुर्दशा होती है उसे भोगा समझा होता ।
अल्पसंख्यकों की देश में जो मौजूदा स्थिति है वह दयनीय और सोचनीय है। शिक्षा रोज़गार के आँकड़ो पर नज़र डाले तो पाएँगे कि उनकी इस बदतर हालत में सुधार के लिए कोई ख़ास प्रयास नहीं किया गया। और जब कभी भी सरकारों ने ऐसी कोशिश की तो उग्र हिंदुओ ने विभाजन का डर बताकर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का ऐसा खेल खेला कि धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने वालों ने अपने क़दम पीछे हटा लिए।
ऐसा ही एक दिलचस्प वाक़या को बताते हुए जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने कहा कि एक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम के चेयरमेन के तौर पर फ़िरोज़ गांधी ने फ़ैसला लिया कि वे चपरासी के सारे पद मुसलमानो और अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित रखेंगे। लेकिन उस पर तो अफ़सरों और दूसरे लोगों में खलबली मच गई और उन्होंने फ़िरोज़ गांधी से कहा “ साहब हम अपने-अपने घरों से दूर नौकरी के लिए यहाँ रह रहे हैं। हमारा खाना , पकाने और पानी भरने का काम चपरासी नहीं करेगा तो कौन करेगा ? आप चाहते हैं कि हम ये काम मुसलमानो और हरिजनो के हाथों करवाएँ ? हम तबादला ले लेंगे, या इस्तीफ़ा दे देंगे लेकिन ये नहीं करेंगे! मल्होत्रा ने लिखा है कि फ़िरोज़ गांधी ने हारकर हथियार डाल दिए ।
( बढ़ती दूरियाँ-गहराती दरार पृष्ठ-189 )
ये एक तरह का पूर्वाग्रह था जो हिंदुओ के एक वर्ग में आज भी पनप रहा है। संविधान के मूल भावना के विपरीत इस तरह की घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिल ही जाती है। लेकिन इस बारे में कोई भी सरकार ठोस निर्णय नहीं ले पाई । जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उग्र हिंदू संगठनों ने अल्पसंख्यकों के बरसों से चली आ रही परम्परा पर प्रहार करना शुरू कर दिया और जगह-जगह क़ानून तक हाथ में लेने लग गए।
वेलेंटाइन डे का विरोध के लिए बजरंग दल को सामने किया गया। बजरंग दल ने वेलेंटाइन डे का विरोध करने जगह-जगह क़ानून अपने हाथ में लेने लग गए। यहाँ तक कि इस दिन परिवार वालों का बाग़-बग़ीचे में जाना तक दूभर हो गया। छत्तीसगढ़ के रायपुर के बूढ़ागार्डन में तो बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने इतना उत्पात मचाया की शहर आज भी इस शर्मनाक घटना को नहीं भूल पाया है। गार्डन में बैठे भाई-बहन के साथ न केवल अभद्रता की गई बल्कि कालिख तक पोत दिया गया । हर साल वेलेंटाइन डे को लेकर बजरंग दल व दूसरे उग्र हिंदू संगठनों का यही रवैया होता है। उनके लिए संविधान-क़ानून से बढ़कर हिंदुत्व है।
इसी तरह 2014 के बाद गो रक्षा के नाम पर पूरे देश में जिस तरह का तांडव मचाया गया वह भी किसी से छिपा नहीं है। जगह-जगह गौ माँस के नाम पर उत्पात मचाया गया और हत्या तक की गई। साम्प्रदायिक शक्तियों के इस करतूत ने तो उत्तर प्रदेश में एक होनहार पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या तक कर दी , और ज़्यादातर मामलों में संघ के आनुवंशिक संगठनों से जुड़े लोग ही सामने आए।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक के मुख्यालय में एक वक़्त तक तिरंगा तक नहीं फहराया जाता था। और आज भी भगवा ध्वज को लेकर नये-नये कारण गिनाए जाते हैं।
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