सियासी-फ़सल-१३

भयभीत कट्टर हिंदू मीडिया कर्मियों पर अपनी पहचान के डर से हमला कर रहे थे। उन्होंने कार सेवकों की भावना को इतना भड़काया कि वे बेलगाम हो गए। मीडिया कर्मियों को उसी तरह गाली दे रहे थे जो गालियाँ मुसलमानो के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह घिनौना खुला खेल पाँच घंटे से अधिक चला , मीडिया कर्मी लात- घूँसे , लाठी- डंडे , चाक़ू-रॉड सहते रहे।
प्रशासन और सुरक्षा बल मूक दर्शक बने सरकारी आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। सब कुछ ऐसा सुनियोजित लग रहा था मानो सरकार भी पूरी तरह साथ थी। रेत ईटा गिट्टी गारा सब उपलब्ध हो गये और रातों रात चबूतरा बनाकर श्रीराम जी की मूर्ति तक स्थापित हो गई।
लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि इस पूर्व नियोजित अभियान की उन्हें पहले से जानकारी नहीं थी।
भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने इस घटना से आहत होते हुए कहा-
जिन लोगों ने मस्जिद के ढाँचे को क्षति पहुँचाई है, उन्होंने भारत की सदियों पुरानी उस प्रवृत्ति को क्षति पहुँचाई है , जिसे भारत की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष करने वाले शहीदों और नेताओ ने परिपुष्टि किया और मज़बूत बनाया। उन लोगों ने, क़ानून के नियमो का उल्लंघन किया है, सभी धर्मों के प्रति पारस्परिक सद्भावना की भारतीय परम्परा का और हिंदू जीवन प्रणाली के मूलभूत सिद्धांतों और मूल्यों का उल्लंघन किया है।
द टाईम्स आफ इंडिया 8 दिसम्बर 1992 के अपने मुख पृष्ठ पर सम्पादकीय लिखते हुए इसे धर्म निरपेक्षता के गणतंत्रिय अवधारणा पर प्रबलतम आघात बताया और लिखा कि सिर्फ़ मुसलमानो को आतंकित करना बस नहीं है बल्कि धर्म निरपेक्षता की अवधारणा को भी मान्यता और वैधता से वंचित करना है।
टाईम्स ने साफ़ कहा कि भाजपा, बजरंग दल , विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त संगठनों ने जो रणनीति अपनाई है , उसका मुख्य ध्येय हिंदू- मुस्लिम भेदभाव की दरार को और ज़्यादा चौड़ा करना उतना नहीं है , जितना हिंदू-हिंदू के बीच की दरार को और गहरा करना है। और यह संघर्ष धर्म निरपेक्ष के हिमायत नहीं करने वालों के बीच लड़ाई छेड़ देना ही उनका उद्देश्य है।
सारी लफ़्फ़ाज़ियों की परतों को हटा देने के बाद एक ही मतलब था “ उन सभी लोगों को सिरे से ख़ारिज कर देना जो अल्पसंख्यकों के संरक्षण को समर्थन देते थे”।
इस घटना से स्पष्ट हो गया था कि धर्मांधता इंसान में राक्षस का गुण भर देता है और वह नियम- क़ानून के साथ खिलवाड़ करता है । टाईम्स आफ इंडिया का इस घटना पर इस तरह लिखना पूरे विश्व के लियें किसी चेतावनी से कम नहीं है-
बाबरी मस्जिद के विंध्व्स ने ऐसा ही एक अवसर प्रदान किया है। इसने निर्धारित संकेत भेजें हैं- पृथ्वी की कोई भी ताक़त, कोई भी संसद , कोई भी अदालत, कोई भी क़ानून, कोई मंत्र या प्रार्थना जो सहिष्णुता का उपदेश देती हो - इस संघ द्वारा अनधिकार से अधिग्रहीत धर्म की विजय-यात्रा के मार्ग में बाधा नहीं बन सकेगी। उपासना स्थलों को ध्वस्त करना , इतिहास की पुस्तकों में मनचाहा परिवर्तन करना, सड़कों और शहरों का नाम बदलना, वेशभूषा और भाषा की संहिताओं को थोपना, साधु सन्यासियों के जमावड़े को अति महत्व देकर अपना मक़सद पूरा करना जैसे अनेकानेक कारनामे करने की उसने छूट ले रखी है। अगर इससे चिंता पनपती है, दूसरे धर्मावलम्बियों - भिन्न मतावलंबियो का घोर अपमान होता है, वे शारीरिक भय , भावनात्मक ब्लेकमेल और बौद्धिक आतंकवाद से संत्रस्त होते हैं, तो हों।
मस्जिद विंध्व्स के बाद दंगा अस्वयंभावी था , क्योंकि जिस तरह के हिंदुओ में कट्टरता है वैसा मुसलमानो में भी तो है। मस्जिद ढहाने वाले चाह रहे थे कि इतनी बड़ी घटना के बाद मुसलमान चुप रहें। देश के कई हिस्से में दंगे भड़क गए। दोनो तरफ़ से कट्टरता की भाषा ने बर्बादी का नया इतिहास लिखना शुरू कर दिया।
नरसिंह राव सरकार एक के बाद एक सवालिया निर्णय ले रही थी, मस्जिद का पुनर्निर्माण की घोषणा, विहिप नेताओ की गिरफ़्तारी ने इस भयावह कांड को भड़काये जा रहा था। वहीं धर्म निरपेक्षता के हिमायती भी सड़क पर आकर दंगा शांत कराने की अपील कर रहे थे लेकिन, कट्टर हिंदुओ और कट्टर मुसलमानो ने तो कुछ और ही तय कर लिया था।
इस पर हिंदू मुस्लिम एकता के हिमायती डॉक्टर रफ़ीक जकरिया ने भारत के सामने मुँह बायें खड़े गम्भीर ख़तरों पर ज़ोर देते हुए कहा-
पंजाब या असम या कश्मीर के संकट फिर तो इनके सामने मामूली पड़ जाएँगे । क्योंकि आख़िरकार वे सभी कतिपय निर्धारित और छोटी जगहों में सीमित हैं, लेकिन अब हमारे सामने जो ख़तरा खड़ा है वह उन सबसे बदतर है, अगर बदले की भावना, प्रतिशोध का यह पागलपन और आतंकवादी कार्रवाई का ज्वार हिंदुओ और मुसलमानो को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है तो फिर मैं यह सोचकर काँप जाता हूँ कि भारत भर के, दोनो ही समुदाय के लाखों लोगों पर क्या बीतेगी? क्या वे शांति से जी पाएँगे? क्या देश की सुरक्षा और अखंडता ख़तरे में नहीं पड़ जाएगी? घृणा एक शक्तिशाली भावना है, लेकिन वह सिर्फ़ हमारे उदीयमान लोकतंत्र  विनष्ट ही कर सकती है। सिर्फ़ प्रेम ही निर्माण करने की क्षमता रखता है, क्या हम उसे फिर से जीवित कर पाएँगे या क्या हमारी नियति यही रह गई है कि हम उन अंधेरे युगों में लौट जायें जहाँ सिर्फ़ जंगल का क़ानून लागू था? अयोध्या ने हमें उसका पूर्वानूभव तो दे ही डाला है।
ये सिर्फ़ डॉक्टर जकरिया की ही आवाज़ नहीं थी , ये उनके धर्म निरपेक्ष और मानव समाज के हितचिंतकों की चिंता थी कि यही हाल रहा तो देश का क्या होगा। क्या ये दर्द मुसलमान बर्दाश्त कर पाएँगे ? मुसलमान तो बर्दाश्त कर भी लें लेकिन क्या यह दर्द वे हिंदुओ को चैन भर नींद सोने देगा जो भारत को धर्म निरपेक्षता की कसौटी पर खरे उतारकर पूरी दुनिया में मानवता का बिगुल फूँक रहे हैं।
एक दूसरे के त्यौहारों में प्रेम का दीपक जलाने और हर सुख दुःख में खड़े रहने वालों पर क्या बीत रही होगी यह उन कट्टरवादियों को कभी समझ में नहीं आएगा।
क्या गौतम बुद्ध, महावीर, गुरुनानक, कबीर , तुलसी से लेकर गांधी के इस देश में यह धर्मांधता कैसे कोढ़ की तरह फैल गया, यह किसी को समझ नहीं आ रहा था। लेकिन एक बात तय हो चुका था कि कट्टर हिंदू और कट्टर मुसलमानो की राजनीति से देश को बड़ा नुक़सान हो रहा था।
कट्टर हिंदुओ के चलते न केवल मुसलमान बल्कि दूसरे अल्पसंख्यकों के लिए भी ख़तरा बढ़ने लगा है। क्योंकि ये हिंदू , मुस्लिम और अंग्रेज़ी शासन की कुंठा से इस क़दर ग्रसित हैं कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा।

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