सियासी-फ़सल -९
कश्मीर समस्या
मौजूदा राजनीति में कश्मीर समस्या इस क़दर हावी है कि इसके चर्चा के बग़ैर भारत की राजनीतिक हालत पर बात ही नहीं हो सकती।
हिंदू-मुस्लिम एकता का सारा प्रयास विफल होने के बाद धर्म के आधार पर देश का विभाजन तो हो गया लेकिन अब भी कट्टरवादियों ने अपना खेल बंद नहीं किया।
आज़ादी के बाद भारत के पास कई तरह की समस्या थी। क़रीब 565 रियासतों का भारत में विलय और भारत को विकास की गति देना भी चुनौती भरा कदम था। इसके अलावा उन जगहों को भी शांत करना था, जहाँ बँटवारे को लेकर दंगा हुए थे । तनाव समाप्त करने और वापस हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करना आसान नहीं था। क्योंकि बँटवारे ने जो ज़ख़्म दिये थे वे असहनीय थे।
रियासतों को विलय की ज़िम्मेदारी लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के ज़िम्मे दी गई वे अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे। भारत सरकार के द्वारा सभी राज्यों को विलय के लिए कहा गया। 565 रियासतों में से 560 रियासत तो विलय के लिए तैयार भी हो गए , जबकि पाँच रियासत केरल के त्रावणकोर , भोपाल, जूनागढ़ , हैदराबाद और कश्मीर ने या तो विलय से इंकार कर दिया या समय माँगा। इसके अलावा गोवा, पंडिचेरी , चंदननगर और सिक्किम थे जिन पर फ़्रान्स और पुर्तगाल का क़ब्ज़ा था। इसके बाद भोपाल, कश्मीर और त्रावणकोर ने तो स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा कर दी तो कुछ ने पाकिस्तान के साथ जाने की इच्छा जताई। त्रावणकोर के राजा को जब मना लिया गया तो भोपाल को लेकर नई समस्या खड़ी हो गई , नवाब के स्वतंत्र राष्ट्र के निर्णय के ख़िलाफ़ जनता सड़क पर आ गई। ठाकुर लालसिंह , डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा सहित आंदोलन का नेतृत्व करने वालों को गिरफ़्तार किया जाने लगा, अंत में एक जून 1949 को भोपाल का भी विलय हो गया। जूनागढ़ के विलय संधि पर हस्ताक्षर के बाद समस्या कश्मीर और हैदराबाद की रह गई। कश्मीर में हिंदू राजा लेकिन बहुसंख्यक अवाम मुस्लिम थे तो इसके विपरीत हैदराबाद में मुस्लिम शासक और बहुसंख्यक अवाम हिंदू थे। हैदराबाद को तो सेना से घेरकर विलय के लिए राज़ी कर लिया गया लेकिन कश्मीर की स्थिति भारत की सीमा होने के कारण अलग तरह की थी। कश्मीर के राजा हरिसिंह पर दबाव का असर ही नहीं हो रहा था।
हालाँकि विभाजन के दौरान ही जगह का निर्धारण हो चुका था और भारत को कश्मीर दिया जा चुका था लेकिन ब्रिटेन के ढुलमुल रवैए के चलते कश्मीर के राजा हरिसिंह विलय को तैयार ही नहीं हो रहा था । कहा जाता है कि कश्मीर के राजा के अड़ियल रूख से नाराज़ सरदार पटेल ने तो एक बार ग़ुस्से में कह दिया कि कश्मीर अलग रहना चाहता है तो रहे, हमें देश की दूसरी समस्या भी देखनी है। लेकिन नेहरु हर हाल में कश्मीर का भारत में विलय चाहते थे ।
हरिसिंह का राज जम्मू, लद्दाख़ और कश्मीर में बँटा था और वे भौगोलिक परिस्थितियों का फ़ायदा उठाकर विलय से इंकार कर रहा था। तभी 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर राजा के स्वतंत्र राज पर क़बीलाई भेष में पाक सेना से हमला करवा दिया। कश्मीर में भयंकर ख़ून ख़राबा होने लगा। पाकिस्तानी सेना ने वहाँ के मुसलमानो का बड़े पैमाने पर क़त्ल करना शुरू कर दिया। इससे घबराकर हरिसिंह ने भारत से सहायता की गुहार लगाई। चूँकि बँटवारे के मुताबिक़ कश्मीर इस देश का हिस्सा था इसलिए भारत ने जवाबी कार्रवाई की और पाकिस्तानी सेना को पीछे खदेड़ना शुरू किया । इस युद्ध में आम जनता को हो रहे नुक़सान से भारत व्यथित था और पाकिस्तानी सेना पीछे लौटते आम लोगों को निशाना बना रहे थे जिसके चलते नेहरु ने यूएनओ को पत्र लिखकर युद्ध विराम की घोषणा करवा दी । युद्ध विराम के समय पाकिस्तानी सेना का आधा कश्मीर पर क़ब्ज़ा था।
युद्ध विराम के बाद के हालत यह थे कि हरिसिंह सशर्त विलय की बात कही तो पाकिस्तान अपने क़ब्ज़े वाले कश्मीर को छोड़ने से मना कर दिया।
कहते है कि यह सब नेहरु की रणनीतिक विफलता थी। जबकि हरिसिंह को हमले के दौरान ही बिना शर्त विलय कराया जा सकता था । वहीं यदि युद्ध विराम की घोषणा नहीं होती तो भारतीय सेना पूरे कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेती। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुका था। यदि पूरा कश्मीर इधर या उधर होता तो हालात दूसरे होते लेकिन आधे-आधे का चक्कर ही सारी समस्या का जड़ बन गया। ऊपर से धारा 370 और 35 ए ने समस्या को मौजूदा दौर तक न केवल खींच लिया बल्कि समस्या को नासूर बना दिया।
राजनैतिक विश्लेशको का मानना है कि इसके लिए पूरी तरह नेहरु की रणनीति ही दोषी है। क्योंकि पटेल के रूख के बाद उन्होंने कश्मीर मामले को ख़ुद इसलिए देखा क्योंकि वे कश्मीरी होने के कारण कश्मीर का मोह नहीं छोड़ पाए और जब हरिसिंह ने मदद की गुहार लगाई तब भी कश्मीर छूट जाने के भय में मदद से पहले विलय पर बात नहीं की । लेकिन इसके बाद पूरा कश्मीर को हथियाने पाकिस्तान ने भारत से तीन युद्ध किए और तीनो ही बार पाकिस्तान को पराजय मिली। तीसरे युद्ध में तो पाकिस्तान का विश्व पटल में जो अपमान हुआ इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। तीसरे युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने में भारत ने जो रणनीतिक कौशल अपनाई उसके लिए पूरा देश इंदिरा गांधी को आज भी याद करता है।
दरअसल बँटवारे के समय ही बंगाल से भाषा के आधार पर अलग बंगाल की माँग उठने लगी थी लेकिन जिन्ना के प्रभाव की वजह से असंतुष्टो को कुचल दिया जाता था लेकिन जिन्ना के मृत्यु के बाद अलग बंगाल की माँग बढ़ता ही गया और बंगलादेश के रूप में विभाजन को भारतीय सेना ने इंदिरा गांधी की रणनीति में पूरा किया।
लेकिन इस अपमानजनक हार को उसकी सेना नहीं भूल पाई है और वह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आया । सीधी लड़ाई में भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकने के कारण अब वह गौरिल्ला वार का सहारा लेकर कश्मीर को अशांत करने लगा है। उसने पंजाब के लोगों को भड़काकर ख़ालिस्तान की माँग करने वालों को मदद कर भारत को अस्थिर करने की कोशिश में लगा रहा । यहाँ तक कि ख़ालिस्तान समर्थकों की आड़ में आतंकवादी तक भेजा गया । लेकिन भारत ने उसके मंसूबे पूरे नहीं होने दिया।
मौजूदा राजनीति में कश्मीर समस्या इस क़दर हावी है कि इसके चर्चा के बग़ैर भारत की राजनीतिक हालत पर बात ही नहीं हो सकती।
हिंदू-मुस्लिम एकता का सारा प्रयास विफल होने के बाद धर्म के आधार पर देश का विभाजन तो हो गया लेकिन अब भी कट्टरवादियों ने अपना खेल बंद नहीं किया।
आज़ादी के बाद भारत के पास कई तरह की समस्या थी। क़रीब 565 रियासतों का भारत में विलय और भारत को विकास की गति देना भी चुनौती भरा कदम था। इसके अलावा उन जगहों को भी शांत करना था, जहाँ बँटवारे को लेकर दंगा हुए थे । तनाव समाप्त करने और वापस हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करना आसान नहीं था। क्योंकि बँटवारे ने जो ज़ख़्म दिये थे वे असहनीय थे।
रियासतों को विलय की ज़िम्मेदारी लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के ज़िम्मे दी गई वे अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे। भारत सरकार के द्वारा सभी राज्यों को विलय के लिए कहा गया। 565 रियासतों में से 560 रियासत तो विलय के लिए तैयार भी हो गए , जबकि पाँच रियासत केरल के त्रावणकोर , भोपाल, जूनागढ़ , हैदराबाद और कश्मीर ने या तो विलय से इंकार कर दिया या समय माँगा। इसके अलावा गोवा, पंडिचेरी , चंदननगर और सिक्किम थे जिन पर फ़्रान्स और पुर्तगाल का क़ब्ज़ा था। इसके बाद भोपाल, कश्मीर और त्रावणकोर ने तो स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा कर दी तो कुछ ने पाकिस्तान के साथ जाने की इच्छा जताई। त्रावणकोर के राजा को जब मना लिया गया तो भोपाल को लेकर नई समस्या खड़ी हो गई , नवाब के स्वतंत्र राष्ट्र के निर्णय के ख़िलाफ़ जनता सड़क पर आ गई। ठाकुर लालसिंह , डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा सहित आंदोलन का नेतृत्व करने वालों को गिरफ़्तार किया जाने लगा, अंत में एक जून 1949 को भोपाल का भी विलय हो गया। जूनागढ़ के विलय संधि पर हस्ताक्षर के बाद समस्या कश्मीर और हैदराबाद की रह गई। कश्मीर में हिंदू राजा लेकिन बहुसंख्यक अवाम मुस्लिम थे तो इसके विपरीत हैदराबाद में मुस्लिम शासक और बहुसंख्यक अवाम हिंदू थे। हैदराबाद को तो सेना से घेरकर विलय के लिए राज़ी कर लिया गया लेकिन कश्मीर की स्थिति भारत की सीमा होने के कारण अलग तरह की थी। कश्मीर के राजा हरिसिंह पर दबाव का असर ही नहीं हो रहा था।
हालाँकि विभाजन के दौरान ही जगह का निर्धारण हो चुका था और भारत को कश्मीर दिया जा चुका था लेकिन ब्रिटेन के ढुलमुल रवैए के चलते कश्मीर के राजा हरिसिंह विलय को तैयार ही नहीं हो रहा था । कहा जाता है कि कश्मीर के राजा के अड़ियल रूख से नाराज़ सरदार पटेल ने तो एक बार ग़ुस्से में कह दिया कि कश्मीर अलग रहना चाहता है तो रहे, हमें देश की दूसरी समस्या भी देखनी है। लेकिन नेहरु हर हाल में कश्मीर का भारत में विलय चाहते थे ।
हरिसिंह का राज जम्मू, लद्दाख़ और कश्मीर में बँटा था और वे भौगोलिक परिस्थितियों का फ़ायदा उठाकर विलय से इंकार कर रहा था। तभी 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर राजा के स्वतंत्र राज पर क़बीलाई भेष में पाक सेना से हमला करवा दिया। कश्मीर में भयंकर ख़ून ख़राबा होने लगा। पाकिस्तानी सेना ने वहाँ के मुसलमानो का बड़े पैमाने पर क़त्ल करना शुरू कर दिया। इससे घबराकर हरिसिंह ने भारत से सहायता की गुहार लगाई। चूँकि बँटवारे के मुताबिक़ कश्मीर इस देश का हिस्सा था इसलिए भारत ने जवाबी कार्रवाई की और पाकिस्तानी सेना को पीछे खदेड़ना शुरू किया । इस युद्ध में आम जनता को हो रहे नुक़सान से भारत व्यथित था और पाकिस्तानी सेना पीछे लौटते आम लोगों को निशाना बना रहे थे जिसके चलते नेहरु ने यूएनओ को पत्र लिखकर युद्ध विराम की घोषणा करवा दी । युद्ध विराम के समय पाकिस्तानी सेना का आधा कश्मीर पर क़ब्ज़ा था।
युद्ध विराम के बाद के हालत यह थे कि हरिसिंह सशर्त विलय की बात कही तो पाकिस्तान अपने क़ब्ज़े वाले कश्मीर को छोड़ने से मना कर दिया।
कहते है कि यह सब नेहरु की रणनीतिक विफलता थी। जबकि हरिसिंह को हमले के दौरान ही बिना शर्त विलय कराया जा सकता था । वहीं यदि युद्ध विराम की घोषणा नहीं होती तो भारतीय सेना पूरे कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेती। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुका था। यदि पूरा कश्मीर इधर या उधर होता तो हालात दूसरे होते लेकिन आधे-आधे का चक्कर ही सारी समस्या का जड़ बन गया। ऊपर से धारा 370 और 35 ए ने समस्या को मौजूदा दौर तक न केवल खींच लिया बल्कि समस्या को नासूर बना दिया।
राजनैतिक विश्लेशको का मानना है कि इसके लिए पूरी तरह नेहरु की रणनीति ही दोषी है। क्योंकि पटेल के रूख के बाद उन्होंने कश्मीर मामले को ख़ुद इसलिए देखा क्योंकि वे कश्मीरी होने के कारण कश्मीर का मोह नहीं छोड़ पाए और जब हरिसिंह ने मदद की गुहार लगाई तब भी कश्मीर छूट जाने के भय में मदद से पहले विलय पर बात नहीं की । लेकिन इसके बाद पूरा कश्मीर को हथियाने पाकिस्तान ने भारत से तीन युद्ध किए और तीनो ही बार पाकिस्तान को पराजय मिली। तीसरे युद्ध में तो पाकिस्तान का विश्व पटल में जो अपमान हुआ इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। तीसरे युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने में भारत ने जो रणनीतिक कौशल अपनाई उसके लिए पूरा देश इंदिरा गांधी को आज भी याद करता है।
दरअसल बँटवारे के समय ही बंगाल से भाषा के आधार पर अलग बंगाल की माँग उठने लगी थी लेकिन जिन्ना के प्रभाव की वजह से असंतुष्टो को कुचल दिया जाता था लेकिन जिन्ना के मृत्यु के बाद अलग बंगाल की माँग बढ़ता ही गया और बंगलादेश के रूप में विभाजन को भारतीय सेना ने इंदिरा गांधी की रणनीति में पूरा किया।
लेकिन इस अपमानजनक हार को उसकी सेना नहीं भूल पाई है और वह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आया । सीधी लड़ाई में भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकने के कारण अब वह गौरिल्ला वार का सहारा लेकर कश्मीर को अशांत करने लगा है। उसने पंजाब के लोगों को भड़काकर ख़ालिस्तान की माँग करने वालों को मदद कर भारत को अस्थिर करने की कोशिश में लगा रहा । यहाँ तक कि ख़ालिस्तान समर्थकों की आड़ में आतंकवादी तक भेजा गया । लेकिन भारत ने उसके मंसूबे पूरे नहीं होने दिया।
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