सियासी-फ़सल -६

बेवजह के मुद्दे 
मौजूदा परिस्थितियों में सबसे बड़ा संकट विश्वास का है और इस संकट के चलते सत्ता ही सब कुछ हो गया है, पहले जो लोग राजनीति को सेवा का माध्यम मानते थे वे लोग ही अब राजनीति को कमाई का माध्यम मानते हैं , यह अलग बात है कि इसे स्वीकार नहीं करते । 
आज़ादी के बाद राजनीति सेवा का माध्यम रही है । चूँकि इस देश के केंद्र में कांग्रेस थी और कांग्रेस की रीति नीति ही प्रभावी रही , लोग तो यहाँ तक कहते है कि कांग्रेस में आये बदलाव का असर भी देश में पड़ता रहा है इसलिये भले ही लोग कैसे भी तर्क गढ़ ले लेकिन गांधी परिवार की रीति नीति का देश पर प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता । यही वजह है कि लोग भले ही यह बात मज़ाक़ में कहे लेकिन यह कहते ज़रूर है कि जब तक राजनीति समाज-सेवा रही इस देश के नेहरु ख़ानदान की बेटी इंदिरा गांधी ने समाज-सेवी फ़िरोज़ गांधी से शादी की लेकिन समय के साथ राजनीति आज जब व्यवसाय का रूप ले चुकी है तो इसका संकेत इसी ख़ानदान की बेटी प्रियंका गांधी के व्यवसायी रॉबॉर्ट वढ़ेरा से शादी शादी से देखा जा सकता है।
आज़ादी के बाद चुनाव दर चुनाव ने राजनैतिक दलों की ताक़त तो बढ़ाई ही है चुनाव जितने के नये नये हथकंडे भी सामने आये हैं। चुनावी सत्ता हासिल करने उठाए जाने वाले मुद्दों में जनसरोकार कोई मायने नहीं रखता और न ही चाल चेहरा चरित्र या राजनैतिक सुचिता ही देखी जा रही है । इस सत्ता संघर्ष में उठाये जाने वाले मुद्दों से लोकतंत्र को होने वाले नुक़सान की भी परवाह नहीं की गई जबकि जन भावना भड़काने वाले मुद्दों को बेवजह तूल दी गई ।चुनाव से पहले धार्मिक या जातिगत मुद्दों को जानबूझकर छेड़ा गया ताकि इसका राजनैतिक फ़ायदा उठाया जा सके । यही नहीं देश की अखंडता और सामाजिक सौहार्द को बिगाड़कर सत्ता हासिल करने का ऐसा खेल शुरू किया गया जिससे पार्टियाँ तो जीत गई लेकिन कितने ही घर उजड़ गए। लोकतंत्र लहू- लूहान होने लगा। संसद जैसे पवित्र मंदिर में आपराधिक तत्वों को बिठाने का काम भी राजनैतिक दलों ने किया , यहाँ तक कि गोडसे जैसे हत्यारों का भी राजनैतिक लाभ के लिए महिमामंडन किया गया तो, हिंदुत्व के नाम पर छल-प्रपंच का स्वाँग रचा गया।
ऐसा नहीं है कि इस सत्ता के खेल में कोई एक पार्टी ही शामिल है, बल्कि सभी दल अपने-अपने तरीक़े से इस खेल में शामिल होते चले गए। हाल ही में नरेंद्र मोदी का टोपी पहनने से इंकार करना और राहुल गांधी का जनेऊ प्रदर्शन या दिग्विजय सिंह के साधुओं की टोली का चुनाव प्रचार भी ऐसे लोगों के लिए संजीवनी साबित होते रहे हैं जो सामाजिक सौहार्द को बिगाड़कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं।
बुनियादी सुविधाओं और जनसरोकार के मुद्दों से ईतर जाकर जिस तरह से ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को उठाने की कोशिश की जाती है , उनमें आजकल सोशल मीडिया की भूमिका शर्मनाक स्तर तक पहुँच गई है। वे ग़ैर ज़रूरी मुद्दे जो मौजूदा लोकतंत्र को लहूलूहान कर देश का सौहार्द बिगाड़ने में लगी है , जिनका देश के मौजूदा लोकतंत्र से कोई वास्ता नहीं हैं , उनमें से प्रमुख है-
1- मुस्लिम शासकों ने इस देश को लूटा , धार्मिक स्थलों को तोड़ा, हिंदुओ पर अत्याचार किये, ज़बरन धर्म परिवर्तन कराये।
2- राम मंदिर का मुद्दा।
3- मुस्लिम व ईसाइयों द्वारा वर्तमान में धर्म परिवर्तन 
4- हिंदुओं को छोड़कर दूसरे धर्म के लोगों की इस देश के प्रति निष्ठा नहीं हैं वे ग़द्दार हैं।
5- उर्दू भाषा को बढ़ावा देने का मतलब पाकिस्तान को समर्थन।
6- शरीयत क़ानून बंद कर एक ही क़ानून हो । चार शादियाँ कर जनसंख्या बढ़ाकर देश का नुक़सान करते हैं।और अपनी जनसंख्या बढ़ाकर देश को तोड़ने की साज़िश।
7- हिंदुओ को काफ़िर कहते हैं, मूर्ति पूजा के विरोधी।
8- पाकिस्तान क्यों नहीं भेजा गया।
9- हिंदुओ की हत्या जानबूझकर की जाती है।
10- भारत माता की जय और वन्दे मातरम्।
11- तीन तलाक़, परदा प्रथा।
12- धार्मिक संस्थानो में भारत विरोधी गतिविधियाँ।
13- मुसलमानो को पाकिस्तान क्यों नहीं भेजा गया।
14- कश्मीर समस्या।
15- जहाँ चार मुसलमान वहाँ एक पाकिस्तान।
16- भाजपा से समुदायों को ख़तरा?
17- भाजपा हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है।
18- गोडसे का महिमामंडन ।
19- नेहरु ख़ानदान मुस्लिम।
20- धर्मनिरपेक्ष छद्म है।
21-रिज़र्वेशन से देश तोड़ने की कोशिश, सवर्नो के साथ अन्याय।
22- पर्सनल लॉ बोर्ड को लेकर भ्रांति।
इस तरह के ग़ैर ज़रूरी बातों को जानबूझकर भड़काने की कोशिश होती है , ताकि वोटों का ध्रुवीकरण हो जाए और सत्ता हासिल कर लूट-खसोट की जाए।
इनमे से कई ग़ैरज़रूरी मामले इसलिए मुद्दे बन गए क्योंकि इसे स्वयं के धर्म और जाति पर हमला बताकर डराया गया। दोनो ही तरफ़ के कट्टरपंथियों ने ऐसे भ्रम को जीवित रखा जिसका मौजूदा परिस्थितियों से कोई मतलब नहीं था।
मुसलमानो - ईसाइयों का किसी जाति का पक्ष लेना देशद्रोही या विघटनकारी बताया जाने लगा। समस्याओं को सुलझाने की बजाय राजनैतिक फ़ायदे लेने की कोशिश हुई। बेमानी पर्चों के माध्यम से उन लोगों को उकसाने या दबाने की कोशिश हुई जिनका इतिहास से सिर्फ़ इतना ही सम्बंध है कि वे उस जाति या धर्म के हैं। हर अपराध के पीछे धर्म या जाति देखकर ही उसे गम्भीर बताया गया , ताकि एक पक्ष या तो डर जाये या वह उकसावे में आकर ऐसा कुछ कर दे जिसका राजनैतिक लाभ लिया जा सके। 
यह सच है कि देश के बँटवारे के लिए मुस्लिम लीग सर्वाधिक ज़िम्मेदार रही लेकिन क्या सावरकर व अन्य कट्टर हिंदुओ ने भी मुस्लिम लीग के समान टू नेशन थ्योरी ( द्विराष्ट्रवाद ) को आगे नहीं बढ़ाया । संघ का उकसाऊँ रवैए को जिस तरह से अंगरेजो का वरदहस्त रहा वह क्या पाक के निर्माण में सकारात्मक नहीं था । सिर्फ़ उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है , इसलिए इस दुश्मनी में हम उर्दू को मर जाने दे? या मुसलमानो को अलग देश दे दिया गया है इसलिए यहाँ जो रह गए हैं उनके साथ अत्याचार करे जबकि देश माँगने वाली पीढ़ी तो कव की गुज़र गई है।
लेकिन राजनैतिक सत्ता के लिये दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से यह सब आज भी सियासी फ़सल है। जिसकी वज़ह से हर साल न केवल सैकड़ों लोगों की हत्या की जाती है सम्पत्तियों की लूट-पाट के अलावा सरकारी सम्पत्तियों को भी नुक़सान पहुँचाया जाता है।
बेवजह के मुद्दों को तूल देने का फ़ायदा जिस तरह से राजनैतिक दलो ने उठाया है उससे वे तो बरगद की तरह फल-फूल रहे हैं लेकिन आम जनमानस को क्या मिल रहा है? मुद्दों के साथ वोट हासिल कर लिए जाते हैं लेकिन लोगों की बुनियादी सुविधा पर ध्यान ही नहीं दिया जाता है उलटे इस देश का सामाजिक सौहार्द और धर्म निरपेक्ष छवि ही बिगड़ रहा है और यही हाल रहा तो हालत और भी बिगड़ते चले जाएँगे।

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