सियासी-फ़सल -५

औरंगजेब के द्वारा अकबर के ज़माने से मंदिरो और गुरुद्वारों को दान दिए जाने वाले परम्पराओं को भी बदल दिया गया। हालाँकि उसने जयसिंह और जसवंत सिंह को विश्वास पात्र बनाया था लेकिन आम जन के प्रति उसका रवैया विद्वेषपूर्ण और कठोर ही रहा। हिंदुओ के धार्मिक यात्रा पर जज़िया कर लगाया, संगीत पर पाबंदी लगाई , हर तरह के उत्सवों व जश्नो को भी कम किया। इसके चलते उन्माद फैलाने वाली की वजह से भी तनाव फैलने लगा।
सिख गुरु तेग़बहादुर (1621-1675) को प्राणदंड देने की घोषणा के बाद तो हालात और भी बिगड़ गए । गुरु के अनुयायियों में भयानक रोष फैल गया और गुरु तेग़बहादुर के पुत्र दसवे गुरु गोविंद सिंह ने मुस्लिम साम्राज्य को उखाड़  फ़ैकने की घोषणा कर दी। मुग़ल ज़ुल्मशाही पर तीखे प्रहार किये और उन्हें हिंदुओ का भी समर्थन मिलने लग गया । अब तक धर्म सुधारवादी और हिंदू मुस्लिम एकता के सूत्रधार माने जाने वाले सिखों ने गुरु गोविंद सिंह के हुंकार से एकजुट होकर उग्र हो गए। और यहीं से मुग़ल सल्तनत के विनाश की बीज बो दी गई।
हालाँकि औरंगज़ेब और गुरु गोविंद सिंह के बीच सुलह की कोशिश भी हुई लेकिन मामला हाथ से निकल चुका था ।
इधर मराठा नेता शिवाजी ( 1627-1680) के साथ भी औरंगज़ेब का सलूक अतिवादी होने लगा जिसके चलते दक्खन में भी हिंदू विद्रोही हो गए जंबकि शरीयत क़ानून के कड़ाई से पालन करने के निर्देश से अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुंडा के शिया समुदायों ने भी बग़ावत कर दी। शिया-सुन्नी एक दूसरे के जान के दुश्मन हो गए।
इस दौरान प्रशासन में पकड़ भी कमज़ोर होने लगी और सूचना के आदान-प्रदान के अभाव में हिंदुओ के प्रति अनावश्यक ज़ुल्म किए जाने लगे। और यह सब बादशाह को ख़ुश करने भी किए जाते थे। औरंगज़ेब की बादशाहत जाने की जो वजह थी वह मुसलमानो के लिए भी सबक़ का विषय है। इसके बाद मुग़ल सल्तनत बिखरता चला गया । नादिर शाह और अब्दाली की बार-बार चढ़ाई से मुग़ल सल्तनत सिकुड़ता चला गया। मुग़ल सल्तनत को बचाने मराठों ने पानीपत की तीसरी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन पराजय ही हाथ लगी।
मुस्लिम शासकों के इस दौर में यदि कई कालिमामय कालखंड हैं तो अनगिनत ऐसे भी कालखंड हैं जो हिंदू प्रजाओं को सुकून देने वाला है।
ऐसा नहीं है की इस कालखंड में केवल मुस्लिम शासकों ने ही ज़ुल्म ढायें। कई हिंदू शासकों ने भी ज़ुल्म ढाए। इतिहासकार डी सी गांगुली ने तो अवध के राजा बरतू के द्वारा के द्वारा किए क़त्लेआम को विस्तार दिया है जब 1760 में सदशिवराव भाऊ और कुछ जाट शासकों की मुसलमानो के प्रति क्रूरता से इतिहास भरा पड़ा है।
इसके अलावा अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंकने मैसूर के टीपू सुल्तान की वीरता की अपनी कहानी है । जबकि अंग्रेज़ शासनकाल में हिंदू मुस्लिम एकता ने अंगरेजो की नींद हराम कर दी थी । लेकिन मौजूदा राजनीति में टीपू सुल्तान के लिए भी कट्टर पंथी जगह छोड़ने तैयार नहीं हैं, जबकि इतिहासकार के आर मलकानी ने अपनी किताब - मुस्लिम इंडिया के पृष्ठ 280 पर लिखा है-
सचमुच ही , जितना ज़्यादा मैं टीपू सुल्तान के बारे में पढ़ता जाता हूँ , उतना ही ज़्यादा मैं उसके समृद्ध व्यक्तित्व से प्रभावित होता जाता हूँ। बचपन में टीपू के दो शिक्षक थे , एक हिंदू पंडित गोवर्धन और एक मुस्लिम मौलवी ऊबैदुल्लाह । उसका आजीवन साथी और वज़ीर-ए-आज़म था पुन्नैया , उसका मुख्य सेनापति था कृष्ण राव , उसका निजीसचिव था शिवाजी । उसने 156 मंदिरो को धर्मदाय प्रदान किया। प्रतिदिन सवेरे सबसे पहले वह स्नान करता था और भगवान रंगा को नमन करता था। एक बार वह श्रिंगेरी महाराज का उठकर स्वागत नहीं कर पाया तो उसने अपनी भूल के लिए माफ़ी माँगी और प्रायश्चित के रूप में शत चण्डीयज्ञ करवाया , और सबसे मार्मिक बात तो यह है कि वह एकमात्र राजा था जिसने ब्रिटिशो से लड़ते लड़ते वीरगति पाई। उसके ध्वज पर अंकित था शेर।
यदि मुस्लिम शासन के कालखंडो को देखा जाय तो हिंदुओ और मुसलमानो के रिश्ते आमतौर पर सौहार्दपूर्ण रहे। हाँ यह सच है कि कुछ शासकों ने धर्मान्तरण को प्रोत्साहित किया और हिंदुओ को प्रताड़ित करने के उपाय भी किए, लेकिन कई इतिहासकारों का कहना है की यह सब सीमित जगह में ही किया जाता रहा। और जहाँ तक हर राजाओं द्वारा ज़बरन धर्मान्तरण का मामला है तो यह इसलिए भी ग़लत है क्योंकि यदि ऐसा होता तो हिंदुओ को धार्मिक कार्य की छूट नहीं होती । शरीयत क़ानून की बजाय उनके समाज के हिसाब से सज़ा का प्रावधान नहीं होता और इससे न केवल पूरा समाज प्रदूषित होता बल्कि मुस्लिम सत्ता का अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ जाता।
दरअसल इस कालखंड में पूरे विश्व में राजाओं महाराजाओ का रवैया इसी तरह का रहा है। सत्ता में बने रहना ही मुख्य ध्येय रहा है , इसलिए इन लोगों के आतंक और अत्याचार में धर्म से ज़्यादा ख़ुद का अहंकार और सत्ता में बने रहने की प्रवृत्ति अधिक रही है। यूरोप ही नहीं भारत में भी छोटे-छोटे राजाओं में लड़ाइयाँ होते रही है और इन लड़ाइयों में एक दूसरे की जातियों को निशाना बनाया जाता रहा है। यही वजह है कि हिंदू राजा ही नहीं मुस्लिम शासकों ने भी अपने धर्म गुरुओं के निर्देशों का न केवल उल्लंघन किया बल्कि कई बार अधर्म का सहारा लिया।छल- प्रपंच और षड्यंत्र से सत्ता हासिल करने या सत्ता बनाए रखने अनैतिक कार्य किए जाते रहे। और यह सिर्फ़ मुस्लिम नहीं हिंदू ईसाई यहूदी सभी करते रहे हैं।
उसके बाद आए अंगरेजो के शासन काल में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार , ज़बरिया धर्मान्तरण और अत्याचार का नया युग शुरू हुआ । हिंदू -मुस्लिम सौहार्द पर प्रहार हुए । पूरे देश में अंग्रेज़ी शासन के अत्याचार का हिंदू और मुसलमानो ने एक जुट होकर मुक़ाबला किया। 
इस पूरे मध्य युग में धर्मान्तरितरण को लेकर इतिहासकारों ने कई महत्वपूर्ण जानकारी भी दी है। धर्मान्तरण की वजह का जब अध्ययन किया जाता है तो मुस्लिम या ईसाई दोनो ही शासकों में अत्याचार या ज़बरन धर्मान्तरण के प्रयास से ज़्यादा मामले तो पद लोलुप हिंदुओ का सामने आता है जो सत्ता में प्रमुख पदों पर बैठने और अपना रुतबा बनाने धर्म परिवर्तन किए। यही नहीं पूरे भारतीय उप महाद्वीप के अखंड भारत वाले जगहों में व्याप्त छुआ छूत और ग़रीबों को तिरस्कृत करने की वजह से भी बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हुए। आज़ाद भारत में डॉक्टर आम्बेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने की वजह पर भी ध्यान देना चाहिए।
मुस्लिम शासनकाल का एक सच यह भी है कि भले ही अपनी अपनी धार्मिक बाध्यताओ के कारण वे एक नहीं हुए लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस कालखंड में आम हिंदू और मुसलमानो ने एक दूसरे की संस्कृति , पहनावा, शादी ब्याह से लेकर दूसरे माँगलिक कार्यों के तरीक़े को अपनाया था। यहाँ तक कि मुग़ल सैनिक और हिंदू व्यापारियों के बीच लेन-देन के दौरान जो भाषा विकसित हुई वह उर्दू के रूप में विख्यात हुई। यहाँ तक कि मस्जिद-दरगाहों या महलों के निर्माण में भी हिंदू प्रतीकों और आकल्पनाओं से बहुत कुछ अपनाया जाने लगा। 
अध्ययनकारो के मुताबिक़ मेहराब, हिंदू देवालयों जैसे थे , तोरण संरचना में अक्सर हिंदकरण होता था। अनेक त्यौहार  और उत्सव साथ-साथ मनाते थे , हिंदुस्तान के मुसलमान अपने त्यौहारों में सजावटें , दीपमालाएँ, आतिशबाज़ियाँ और शादी ब्याह में मेहंदी त्यौहारों में राखियाँ और भी कई चीज़ों को शामिल किया।
इस सबके बावजूद यदि मौजूदा हालात बिगड़ते चले जा रहे हैं तो इसकी वजह 1947 का वह बँटवारा है , जिसकी वजह से दोनो धर्मों में पड़ी दरार को पाटने की बजाय राजनैतिक सत्ता के लिए कुरेदा जाने लगा। यहाँ तक कि हिंदुओ को देश का इस्लामिकरण के नाम से डराया गया तो मुसलमानो को इस्लाम ख़तरे में बताकर डराया गया। हर परिवर्तन को इस्लाम के ख़तरे के रूप में पेश किया गया और परिवर्तन के विरोध को हिंदुत्व व देश के लिए ख़तरा बताया जाने लगा। यह सब सियासी खेल था जिसे समझना आसान भी नहीं होता ।
मौजूदा परिस्थितियाँ जिस तरह से सत्ता के लिए बनाई गई वह परिस्थितियाँ तो मध्ययुग में यदाकदा दिखाई देती है। अन्यथा पूरा इतिहास आम जन की दृष्टि में सामान्य ही रहा है। तभी तो मुस्लिम और ईसाई शासनकाल में साधु संत , सूफ़ी, लेखकों, कवियों, शायरों ने धर्म को लेकर बेहिचक रचनाएँ की। यदि ऐसा नहीं होता और धर्म को लेकर संकीर्णता होती तो क्या कोई उर्दू शायर मिर्ज़ा असदुल्ला खान (1797-1869) बनारस या काशी को लेकर चराग-ए-दैर ( मंदिर का दीपक) नामक कविता लिख पाता। बनारस की कल्पनातीत महिमा में लिखे उनके इस गीत को पढ़कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उस दौर में भी सद्भावना का स्तर क्या था-
खुदा बनारस को बुरी नज़र से बचाए
यह उल्लास से भरा स्वर्ग है,
आवागमन करती रूहों की
यात्रा का अंतिम पड़ाव है
वक़्त के झँझावत इस देवालय भूमि को नही छूते
बनारस सदाबहार है।
यहाँ पतझड़ बन जाता है माथे का चंदन
बसंती बयार पहनती है जनेऊ फूलों का,
गोधुलि बेला में आसमान के माथे पर तिलक लगता है
काशी की मिट्टी का।
हिंदू का यह क़ाबा
शंख बजाने वालों का यह आराधना गृह 
इसकी मूर्तियाँ और प्रतिमाएँ 
बनी है उसी नूर से जो
कभी कौंधी थी सिनाई की पर्वत पर...
मैंने कहा एक रात एक ऋषि से 
(जानता था जो कालचक्र के रहस्यों को )
महात्मन, आप देख ही रहे हैं
अच्छाई और ईमानदारी
निष्ठा और प्रेम
विदा हो गए इस दुखींयारी दुनिया से।
बाप और बेटे जानी दुश्मन है
भाई से लड़ता है भाई,
एकता, एकजुटता का ख़ात्मा हो गया।
ऐसे अपशकुनो के बावजूद
क़यामत क्यों नहीं आती!
आख़िरी बिगुल क्यों नहीं बजता ।
महाप्रलय की बाग़डोर किसके हाथो में है!
उस त्रिकालदर्शी महात्मा ने
इशारा किया काशी कि ओर
और हौले से मुस्कुराए
सरजनहार को इस रचना से प्यार है
इसकी वजह से ज़िंदगी में रंग है
वह नहीं चाहता कि यह नष्ट हो गिरे।

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