सियासी-फ़सल -१९

सेवानिवृत आईपीएस विभूति नारायण राय ने एक हिंदी पत्रिका “सार-संकलन” में लिखे एक लेख में 1960 से लेकर 1988 के दौरान हुए 56 दंगों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि-
1960 के बाद सबसे बड़ा दंगा अहमदाबाद में हुआ था। जस्टिस जगमोहन रेड्डी की अध्यकता वाले आयोग को राज्य सरकार द्वारा दिए गए आँकड़ो के मुताबिक़ दंगों में मुसलमानो को ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा। वे लेख में कहते हैं कि दंगों की शुरुआत किसने की, इसमें भले ही राय अलग-अलग हो सकती है लेकिन नुक़सान तो मुसलमानो को ही उठाना पड़ता है। भिवंडी में हुए दंगों की जाँच रिपोर्ट में जस्टिस डीपी मदान ने भी मुसलमानो को ज़्यादा नुक़सान होने की रिपोर्ट दी।
साम्प्रदायिक ताकते इस बात का भी भ्रम फैलाती है कि मुसलमान क्रूर होते हैं, वे हत्या करने से नहीं हिचकिचाते । हिंदू घरों में तो सिर्फ़ सब्ज़ी काटने का चाक़ू मिलेगा और मुसलमानो के घरों में हथियारों का ज़ख़ीरा मिलेगा ।
राय अपने लेख में लिखते हैं-
उच्च अधिकारीगण , पढ़े लिखे लोग, पत्रकार, पुलिसवाले या न्याय पालिका के अधिकारी भी यही मानते हैं । मुस्लिम जानते हैं कि क़रीब हर दंगे में उन्हें ही ज़्यादा तकलीफ़े उठानी पड़तीं है , यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। हर मुसलमान जानता है कि अगर दंगे भड़के तो वह मारा जाएगा या उसे गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। यह हिंदू पर भी बीत सकता है, लेकिन बहुत कम बार। ऐसी हालत में भला मुसलमान दंगा क्यों शुरू करेगा? क्या समूचे समुदाय ने ख़ुदकुशी करने की ठान ली है? या क्या साल दर साल तकलीफ़े उठाने के बावजूद वह और भी मारखाना और मारना चाहता है? अविश्वसनिय है, लेकिन एक औसत हिंदू ऐसा नहीं सोचता। यह सवाल कि किसने दंगा शुरू किया उसी तरह से पूछा जाता है कि पहला पत्थर किसने फेंका। ज़ाहिर है, इनसे ग़लत निर्णय निकलते हैं, यह वास्तविकता को नज़र अन्दाज़ करता है। जो दंगों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं वे जानते हैं कि हर फेंका हुआ पत्थर दंगा शुरू करवाने की क्षमता नहीं रखता। वह तो शत्रुतापूर्ण साम्प्रदायिक माहौल होता है जो उसे उकसाता है। महीनो से अफ़वाहों, प्रचारों , अविश्वासों का माहौल तैयार किया जाता है।
मध्यप्रदेश के डीजीपी रहे जे एन सक्सेना ने मई 1994 में भोपाल में आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में कहा कि साम्प्रदायिक जुनून को भड़काने वाले पैम्पलेटो और पर्चों का बड़े पैमाने पर वितरण कर भ्रामक प्रचार करते हैं, पिछले पाँच सालों में हुए दंगों की समीक्षा से यह साफ़ हो जाता है कि साम्प्रदायिक हिंसा की मात्रा और साम्प्रदायिक मुद्दों पर उग्र प्रचार के बीच गहरा रिश्ता है।
ऐसे कितने ही लोगों की रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से सामने आ चुकी है, जिसके मुताबिक़ दंगों के लिए उग्र हिंदू संगठन ही ज़्यादा जवाबदार हैं। उनके द्वारा जानबूझकर उन मुद्दों को हवा दी जाती है जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के लोग शामिल होते हैं। यहाँ तक कि आपराधिक घटनाओं को इस तरह से प्रचारित किया जाता है जैसे अल्पसंख्यक समुदाय के सारे लोग अपराध में ही लिप्त हैं। और उन्हें क़ानून का ज़रा भी डर नहीं है।
वास्तव में देखा जाय तो साम्प्रदायिक ताक़तों को सरकार द्वारा छूट देने की वजह से भी देश की एकता और धर्म निरपेक्षता पर आघात पहुँचा है। ऐसे हिंदू संगठन जो खुले आम पैम्पलेट या दूसरे प्रचार माध्यमों से संप्रदायिकता का ज़हर बो रहे हैं, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करने की वजह से ही हालात ज़्यादा बिगड़े हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब कट्टर हिंदुओ की तरफ़ से ही हुआ है , कई बार गर्ममिज़ाज मुसलमानो की प्रतिक्रिया भी देखने को मिली है।
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का परिणाम तो सबके सामने है कि किस तरह से आज तमाम राजनैतिक पार्टियाँ अल्पसंख्यकों को दलितों की तरह छूत मानने लगी है। यहाँ तक कि राजनैतिक पार्टियाँ हार के डर से उन्हें टिकिट देने से भी कतराने लगी है। जबकि हमारे संविधान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए समुचित प्रावधान किए गए हैं। लेकिन साम्प्रदायिक शक्तियों ने जिस तरह से संतुष्टिकरण के शब्द को ताक़त दी है, राजनैतिक दल के नेता भीतर तक डर गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र के नाँव अधिकार कमीशन ने अल्पसंख्यकों के संरक्षण को साफ़ तौर पर परिभाषित किया है-
अल्पसंख्यकों को संरक्षण ऐसे ग़ैर- वर्चस्वी समुदायों का संरक्षण करना है जो, आमतौर पर बहुसंख्यको के सामान ही व्यवहार पाने की आकाँक्षा पालते हुए भी कुछ मात्रा में अलग व्यवहार की भी कामना करते हैं। ताकि अपने उन बुनियादी विशिष्टताओ को बरक़रार रख सके जो उन्हें आबादी के बहुसंख्यक समुदाय से अलग करते हैं। और ऐसे संरक्षण का अधिकार उसकी कामना करने वाले व्यक्तियों पर भी लागू होता है। इसका आशय है कि ऐसे समुदायों या ऐसे समुदायों से जुड़े व्यक्तियों से विशिष्ट व्यवहार, अगर उनके हित में प्रयुक्त होता है, तो न्याय संगत है।
ऐसा नहीं है कि इस घृणा के घर में सिर्फ़ मुसलमानो के प्रति आग लगाई जाती है। धर्मान्तरण को लेकर उग्र हिंदू संगठनों का ईसाई मिशनरीज़ पर भी लगातार हमले होते रहे हैं हालाँकि ईसाई समुदाय यहाँ संख्या में बहुत ही कम हैं इसलिए उनकी प्रतिक्रिया क़ानून के दायरे में होती है। उग्र हिंदू संगठनों ने धर्मान्तरण के नाम पर आज़ादी के बाद से अब तक कितने ही ईसाई धर्म स्थलों पर हमला किया है। यह किसी से छिपा नहीं है। चर्चों में तोड़फोड़ के अलावा ईसाई धर्म प्रचारकों या पादरियों की हत्या तक में हिंदू संगठनों से जुड़े लोगों की भूमिका सामने आ चुकी है। और ऐसी घटना के आरोपियों को कौन राजनैतिक संरक्षण दे रहा है यह भी किसी से छिपा नहीं है। उड़ीसा में पादरी को ज़िंदा जला देने के मामले का आरोपी तो भाजपा की टिकिट से संसद तक पहुँच चुका है। जिस तरह उग्र हिंदू , मुसलमानो को क्रूर बनाते हैं, उसी तरह ईसाई मिशनरीज़ पर प्रलोभन देकर धर्मान्तरण करने का आरोप लगाते हैं। उग्र हिंदुओ का मानना है कि ईसाई मिशनरीज़ इलाज और शिक्षा के अलावा पैसा या दूसरी सामग्री देकर ग़रीबों को अपने जाल में फँसाकर ईसाई बनाते हैं।
1984  में इंदिरा की हत्या के बाद देश भर में सिख अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हुए दंगों के लिए कांग्रेसी कितने ज़िम्मेदार हैं यह किसी से नहीं छिपा है, लेकिन जार्ज फ़र्नांडीज़ के अख़बार में 7 नवम्बर 1984 को प्रकाशित अंक में आरएसएस से जुड़े नानाजी देशमुख का भड़काऊ लेख से यह बात साफ़ हो जाती है कि हिंदू संगठनों का अगला निशाना किस-किस अल्पसंख्यक समुदाय होने वाला है। पूरे देश को हिंदू राष्ट्र की दिशा में ले जाने की तमन्ना का मतलब ही है कि इस देश में कोई दूसरे धर्म के लोगों के लिए कोई जगह नाहीं छोड़ा जाएगा।
बात सिर्फ़ यहीं तक नहीं हैं , घृणा के घर में आरक्षण को लेकर भी दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ समय-समय पर विषवमन किया जाता है। सवर्ण वोटों के ध्रुवीकरण की इस राजनीति में भी वही साम्प्रदायिक ताकते शामिल हैं जो हिंदू राष्ट्र का सपना देखते हैंऔर अल्पसंख्यकों को हिंदू राष्ट्र के निर्माण में रोड़ा मानते हैं।
यही वजह है कि आरक्षण के मुद्दों को अलग-अलग ढंग से उठकर धर्म निरपेक्षता पर प्रहार किया जाता है।
ये सच है कि आरक्षण की वजह से कई प्रतिभाशाली युवाओं को नुक़सान पहुँचा है लेकिन क्या दलित -आदिवासियों या पिछड़ो को आगे बढ़ाना तुष्टिकरण है? दरअसल सत्ता हासिल करने की चाल में साम्प्रदायिक ताक़तों ने यह मान लिया था कि कांग्रेस उनकी राह में बड़ा रोड़ा है इसलिए कांग्रेस पर हमला करने तमाम तरह के वे सारे हथकंडे अपनाए गए जिससे कांग्रेस कमज़ोर हो और कांग्रेस के कमज़ोर होने का अर्थ धर्म निरपेक्षता की हार है।
लेकिन दुर्भाग्य से इंदिरा के बाद कांग्रेस का जिसने भी नेतृत्व सम्भाला , उसने साम्प्रदायिक ताक़तों को क़ाबू में रखने की बजाय ऐसे निर्णय लिए जिससेसाम्प्रदायिक ताक़तों को फलने फूलने का अवसर दिया। कांग्रेस नेतृत्व साम्प्रदायिक ताक़तों से इतनी डर गई कि हिंदू वोट खिसक जाने के डर से राहुल गांधी को जनेऊ का प्रदर्शन करना पड़ा। तो दिग्विजय सिंह जैसे धर्म निरपेक्षवादी नेता को साधु संतो का सहारा लेना पड़ा। यह एक तरह का डर था, और डर से हार मिलना तय हो गया।
हिंदू कट्टरवादियों के के लिए तो मानो हिंदू ही सब कुछ है और धर्म निरपेक्षतावादी भी सत्ता के जाल में फँसते चले गए। जबकि देश की अखंडता के लिए जान देने वाले अब भी तैयार खड़े हैं।
न तेरा है न मेरा है,
ये हिंदुस्ता सबका है
नहीं समझी गई ये बात
तो नुक़सान सबका है।
-अनवर जलालपुरी

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट