सियासी-फ़सल -१८

हर दंगे के बाद जनसंघ या संघ की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। 14 मई 1970 को लोकसभा में भिवंडी और जलगांव में हुए दंगों को लेकर बहस हुई। उस समय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेई ने बहस की शुरुआत करते हुए कहा कि “ वे कुछ खरी-खरी बातें कहना चाहते हैं, हर बार मुसलमान ही दंगों की शुरुआत करते है हालाँकि आख़िर में मुसलमान ही ज़्यादा मारे जाते हैं और उनकी सम्पत्ति को ही ज़्यादा नुक़सान पहुँचता है। फिर भी वे दंगे क्यों भड़काया करते हैं । इसके पीछे तीन सम्भावित कारण हो सकते हैं-या तो वे इस नतीजे पर पहुँच चुके हैं कि उनका हिंदुस्तान में कोई भविष्य नहीं है, सो बेहतर है कि लड़ते-लड़ते मर जायें या कुछ मुसलमान जिनके पाकिस्तान के साथ ताल्लुक़ हैं, दंगे शुरू करवाते हैं ताकि वे हिंदुस्तान को बदनाम कर सके या ऐसे मुसलमान हैं जो नहीं चाहते कि उनका समुदाय राष्ट्र की मुख्यधारा में शरीक हो और इसलिए अपने साथी मुसलमानो को गुमराह करते हैं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मुसलमान इतने घोर साम्प्रदायिक होते जा रहे हैं कि हिंदुओ के सामने सिवाय उग्र बनने के और कोई विकल्प नहीं रह जाता। हिंदुओ ने बड़े लम्बे अरसे तक बर्दाश्त किया है और अब, और ज़्यादा बर्दाश्त करने का ईरादा नहीं रखते।
संसद के भीतर भी घृणा के इस स्वर से वाजपेई ने हिंदुओ को गुमराह करने का जो तरीक़ा अख़्तियार किया उसका तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने करारा जवाब दिया। अपने जोशिला भाषण में इंदिरा ने कहा- मुझे अफ़सोस है कि श्री वाजपेई ने इस मौक़े का इस्तेमाल ख़ासकर मुसलमानो पर और मेरे ख़याल से आम तौर पर सभी अल्पसंख्यकों पर हमला करने के लिए किया। उन्होंने बाँह उठाकर, हिटलर की बड़ी सुपरिचित मुद्रा में, बड़ा उग्र भाषण दिया है। मैं उन दिनो उसी देश में थी और जानती हूँ कि वे कैसे-कैसे शब्दों का इस्तेमाल किया करते थे। ये दंगे कैसे शुरू हुए ? क्या वह छोटा लड़का , जिसने एक पत्थर फेंका, दंगे की शुरुआत करता है? क्या वह एक व्यक्ति , जिसने शायद पहली हत्या की, दंगे की शुरुआत करता है, या इसे शुरू करता है वह माहौल जो ऐसे भाषणों से, जो हमने आज  यहाँ सुना, तैयार किया जाता है? मेरी राय में यह माहौल ही है जो इस साम्प्रदायिक अशांति को शुरू करता है, और यह कोई नई बात नहीं है । यह कोई ऐसी बात नहीं है जो आज पहली बार हुई हो । क्या यह केवल संयोग है कि जब राष्ट्रीय सेवक संघ या जनसंघ के लोग कहीं जाते हैं तो फिर कुछ वक़्त बाद ही उस जगह के आस पास दंगे भड़क उठते हैं। हो सकता है कि यह संयोग हो, मुझे नहीं मालूम लेकिन मुझे और उन सभी को जो इस हालात को देख चुके हैं, यह  बड़ा अजीबोग़रीब संयोग मालूम पड़ता है।
इंदिरा गांधी जानती थी कि दंगों के पीछे कौन है और इसका राजनैतिक मक़सद क्या है लेकिन, दंगा के लिए माहौल तैयार करने वाले और दंगा के दौरान दंगाइयों को मदद करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई वे भी नहीं कर पाई। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियों की मनमानी चलते रही और दंगों के दौरान लूट-पाट में पुलिस भी शामिल होते चली गई । कई दंडाधिकारियो की भूमिका भी पक्षपात पूर्ण रही लेकिन किसी भी सरकार ने कभी भी किसी शासकीय सेवकों के ख़िलाफ़ कड़ा क़दम नहीं उठाया। इंदिरा जी ने क़बूल भी किया था कि यदि प्रशासन साम्प्रदायिक या जातिवाद आधारों पर बँट जाता है तो राष्ट्र की एकता को टिकाए रखना मुश्किल हो जाएगा ।
ऐसा नहीं है कि दंगों को लेकर कांग्रेस या धर्म निरपेक्षतावादी सजग नहीं थे लेकिन कठोर कार्रवाई से वे पीछे हट जाते थे। जिसका परिणाम हर बार और दुःखद होता रहा।
महाड़, भिवंडी और जलगांव में हुए साम्प्रदायिक दंगे की जाँच के बाद जस्टिस डीपी मदान ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसकी टिप्पणी शर्मसार करने के लिए काफ़ी है-
अगर किसी दंगों के तथ्यों का सिर्फ़ सतही अवलोकन करे तो पता चलता है कि दंगा एक बड़ी मामूली सी घटना से शुरू हुआ था और हम दंग रह जाएँगे कि इतना मामूली सा मामला इतनी लूटपाट, आगज़नी और हत्या तक कैसे जा पहुँचा। लेकिन इसके लिए ख़ास गहरे सोच- विचार की ज़रूरत नहीं है कि वह एक घटना दंगे की असली वजह नहीं थी, वरन सिर्फ़ एक नतीजा था, किसी और बात का जिसने दंगे के रूप में अपने को ठोस तरीक़े से अभिव्यक्त किया। सभी साम्प्रदायिक उपद्रवों की बुनियादी वजह देश में व्याप्त साम्प्रदायिक माहौल और दोनो समुदायों के बीच निर्मित साम्प्रदायिक तनाव होता है। यह सांप्रदायिक माहौल, सांप्रदायिक मानसिकतावाले लोगों को तैयार ज़मीन दे देता है। जिससे वे नफ़रत की बीज बोते हैं और तब तक उसे पाल-पोसकर पनपाते रहते हैं जब तक साम्प्रदायिक दंगों की ज़हरीली फ़सल तैयार न हो जाये, और वे मनचाही कटाई करे। सांप्रदायिक अख़बारों-पत्रिकाओं और सांप्रदायिक मंचो  से लगातार प्रचारित होता सांप्रदायिक दर्शन और विचार दोनो ही समुदायों के नासमझ लोगों , और यहाँ तक कि शिक्षित और पढ़े लिखे लोगों के कुछ तबक़ों के मानस को भी इतना विषाक्त बना चुका है कि विरोधी समुदाय के सदस्य की हर एक गतिविधि को अविश्वास और सुबहे की नज़र से देखा जाता है, और उस पर बहुत ही निर्मम आरोप लगाए जाते हैं। कुछ मामले में वे अधिकारी भी, जिनकी यह ज़िम्मेदारी है कि दोनो समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखें, इस दाग़ से मुक्त नहीं हैं।
( कम्यूनल राइट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेस पिरिएड 1984 )
हर दंगों के बाद गुनहगारों की गिरफ़्तारी और उसके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की माँग ज़ोरशोर से की जाती है लेकिन, किसी भी सरकार ने ऐसे तत्वों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखाई। पहले ही तुष्टिकरण के आरोप से डरी कांग्रेस को यह लगता रहा कि वह कार्रवाई करेगी तो हिंदू नाराज़ हो जाएँगे , जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सांप्रदायिक ताक़तों की हिम्मत बढ़ते गई , इसका सबसे बड़ा उदाहरण जम्मू कश्मीर के कठुआ में हुए बलात्कार का मामला है। जहाँ बलात्कारियों को महिमामंडित किया गया। इसी तरह गौ हत्या के दौरान मॉबलिंचिंग करने वाले या उत्तरप्रदेश में इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को मारने का मामला हो। इनके सभी आरोपियों को भाजपा से जुड़े लोगों ने सम्मानित तक किया। और अब तो साक्षी महाराज और प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग गोडसे की जय बोलकर भाजपा की टिकिट पर संसद तक पहुँच गए हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि लम्बे अरसे से हर दंगे के पीछे मुसलमानो का हाथ होने का यक़ीन दिलाने की खुले आम कोशिश होती रही लेकिन धर्म निरपेक्षता के लिए अपना सब कुछ खोने वाली कांग्रेस की सरकारों ने ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ केवल सत्ता के मोह में कार्रवाई नहीं की । जबकि कुंठित हिंदू बड़ी ही बेशर्मी से अल्पसंख्यकों पर विषवमन करते रहे। झूठ और अफ़वाह का सहारा लेते रहे , देश में नफ़रत का बीज बोकर धर्म निरपेक्षता ही नहीं न्याय व्यवस्था पर प्रहार करते रहे।

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