सियासी-फ़सल -१७

घृणा का घर
हिंदुओ के एक तपके में अल्पसंख्यकों से घृणा की भावना नया नहीं है। 11 सौ साल के मुसलमान शासन और फिर अंग्रेज़ी शासन की दासता से कुंठित कुछ हिंदुओ को लगता है कि इन लोगों ने उन पर शासन इसलिए किया हिंदू राजा धर्म और सिद्धांतो पर चलते थे, जिसका मुसलमान और अंगरेजो ने फ़ायदा उठाया, और छल-प्रपंच करके सत्ता हासिल की। लेकिन सच तो यह है कि मध्ययुग में यह सब सत्ता का अनिवार्य अंग रहा है। हिंदू राजाओं का इतिहास भी छल-प्रपंच से भरा पड़ा है।
धर्म परिवर्तन या नए धर्म और पंथ की स्थापना भी जातिगत घृणा की ही उपज रही है लेकिन कुंठित हिंदुओ ने न कभी अपने धार्मिक किताबों का ही अध्ययन किया और न ही कभी हिंदू राजाओं के सत्ता के लिए किए करतूत को ही याद रखा। महाभारत हो या रामायण काल पर नज़र डाले तो सत्ता के संघर्ष का विद्रप चेहरा देखने पढ़ने को मिल जाएगा । लेकिन आज सत्ता के लिए अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना प्रमुख हथियार नज़र आने लगा है, इसलिए हर अपराध को मुद्दा बनाने धर्म देखा जाने लगा है। जबकि निर्भया कांड से लेकर कठुआ कांड तक ऐसे कितने ही उदाहरण है जब हिंदू अपराधियों ने बर्बर तरीक़े से अपने अपराध को अंजाम दिया है। ऐसे में बर्बरता का आरोप सिर्फ़ अल्पसंख्यक पर लगाकर राजनीति करने का अर्थ आसानी से समझा जा सकता है।
ये सच है कि मुस्लिम शासन के दौरान कुछ शासकों ने धर्म के आधार पर फ़ैसले लिए लेकिन यह कहना कि वे अपनी प्रजा के प्रति सिर्फ़ हिंदू होने की वजह से अत्याचार करते थे और धर्म परिवर्तन के लिए आतंक का सहारा लेते थे, कहना इसलिए ग़लत है क्योंकि जिस युग में राजा का फ़ैसला ही सर्वोपरि होता था, उस युग में यदि राजा धर्म परिवर्तन की सोच लेता तो कौन बचता? लेकिन साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपनी सियासी फ़सल काटने मिथ्या प्रचार किया । फिर यदि कोई राजा अत्याचार किया तो उसके लिए वर्तमान के लोग कैसे ज़िम्मेदार हैं?
हिंदू-मुसलमान एकता पर सबसे पहले प्रहार तो अंगरेजो ने किया। मुस्लिम शासकों के अत्याचार को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया ताकि फूट डालो राज करो की नीति को अमलीजामा पहनाया जा सके। यही नहीं ईसाईयत् को प्रेम की मूर्ति और इस्लाम को नफ़रत का पहाड़ घोषित करने कई तरह के कुचक्र रचे गए। ब्रिटिश राज में स्वायत्तता के सवाल खड़े किए गए, और जिसके परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक अशांति की शुरुआत हुई। इससे पहले हिंदू और मुस्लिम राजाओं में लड़ाइयाँ भी हुई तो धर्म का संघर्ष कभी परिलक्षित नहीं हुआ। यहाँ रक कि कई बार तो हिंदू राजाओं की तरफ़ से मुसलमान और मुस्लिम शासकों की तरफ़ से हिंदू तक युद्ध में भाग लेते थे।
अंगरेजो के फूट डालो राज करो नितियो के चलते सामुदायिक तनाव चरम पर पहुँचने लगा। इसके बाद हुए देश के विभाजन ने इस तनाव को दंगे में तब्दील कर दिया। नफ़रत ने घृणा का रूप ले लिया और लोकतांत्रिक सरकारों ने इस घृणा की आग को बुझाने फ़ायर ब्रिगेड की भूमिका तक ही सिमट कर रह गए। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियों ने देश को घृणा का घर बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखा। दंगो का आरोप एक दूसरे पर लगाने और मामले को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने की प्रवृति के चलते अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक हिंदुओ का आक्रोश भीतर ही भीतर सुलगाया गया । हिंदुओ को भड़काने के लिए फ़र्ज़ी आँकड़े प्रस्तुत किए जाने लगे । पैम्पलेट बँटवा कर यह दिखाने की कोशिश हुई कि हिंदुओ का अधिकार अल्पसंख्यक छिन रहे हैं तो दूसरी तरफ़ मुस्लिम - ईसाई सहित दूसरे अल्पसंख्यकों को उनके ही लोग यह समझाते रहे कि हिंदू उन्हें यहाँ रहने नहीं देना चाहते।
आज़ादी के बाद जब यह देश धर्म निरपेक्ष देश बना तो सबसे ज़्यादा तकलीफ़ उन कुंठित हिंदुओ को ही हुई जो इसे हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे। चूँकि कांग्रेसियों ने इस देश को धर्म निरपेक्षता के लिए चट्टान सा अपने को खड़ा किया, इसलिए हिंदू साम्प्रदायिक शक्तियों के लिए कांग्रेस सबसे बड़ी दुश्मन रही।
साम्प्रदायिक शक्तियों ने सत्ता हासिल करने के लिए नये-नये तरीक़े व षड्यंत्र किए। भड़काऊ प्रवृति के चलते देश के अधिकांश हिस्सो में समय-समय पर दंगे हुए। दंगों के लिए मुसलमानो को ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा। सरकार दंगों की जाँच के लिए कमेटी तो बनाती लेकिन जाँच को जानबूझकर विलम्ब किया जाता रहा। हालत यह रही कि मामले को शांत करने ही जाँच की घोषणा की जाने लगी। दंगों के शिकार , पीढ़ितोके आत्मविश्वास को फिर से स्थापित करने की बजाय उन्हें डराया-धमकाया तक गया।
साम्प्रदायिक शक्तियों को जब लगा कि वे अपने मंसूबे पर सफल नहीं होंगे तो उन्होंने सत्ता में पहुँचने का अलग ही रास्ता अख़्तियार किया।
कांग्रेस भी अपनी लगातार जीत की वजह से घमंड से चूर हो गई थी। राजनैतिक विरोधियों को कुचलने असंवैधानिक  कार्रवाई तक की जाने लगी। सत्ता की ताक़त को हर स्तर पर आज़माने के दंभ ने देश को आपातकाल में झोंक दिया । जिसका परिणाम यह हुआ कि इंदिरा से डरे राजनैतिक विरोधियों ने उन लोगों से भी गठजोड़ कर लिया जो इस देश सद्भावना एकता के दुश्मन थे।
आपात काल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस तो हार गई, लेकिन वे लोग भी बड़ी संख्या में जीतकर आ गए जो देश की एकता पर लगातार प्रहार कर रहे थे, जो हिंदुओ को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ भड़का रहे थे, जिन्हें अल्पसंख्यक कभी वोट नहीं देते लेकिन गठबंधन को इंदिरा की तानाशाही से मुक्ति के लिए वोट दिया यानी उन साम्प्रदायिक शक्तियों को भी अल्पसंख्यक ने अपरोक्ष रूप से मदद की।
ये घटना साम्प्रदायिक शक्तियों के लिए अल्पसंख्यकों के वोट हासिल करने का एक नया खेल या रणनीति बना। राजनैतिक सत्ता के लिए उन दलो ने भी साम्प्रदायिक शक्तियों से हाथ मिलाया जो अपने को धर्म निरपेक्ष दल के रूप में पेश करते थे। और अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुस्लिम ईसाई के स्वयम् को हितैषी बताते थे।
लेकिन 1977 में मिली जीत को अपनी जीत का भ्रम लिए सांप्रदायिक ताक़तों ने अकेले चुनाव लड़ा , तो उन्हें मुँह की खानी पड़ी और वे वापस अपनी हैसियत में आ गए , 1980 और 1984 के चुनाव में अपनी गत पिटाने के बाद एक बार फिर 1989 के चुनाव में 1977 की तरह ही रणनीति बनाई गई और यह रणनीति फिर सफल हो गई। लेकिन इस बीच मुसलमानो के तुष्टिकरण को लेकर उठाए जा रहे भ्रम में फँसने वाले हिंदुओ की संख्या में लगातार ईजाफ़ा हो रहा था। साम्प्रदायिक शक्तियाँ लगातार अपना पैर पसार रही थी और कांग्रेस भी तुष्टिकरण के आरोप से भयभीत होने लगी कि वह धर्म निरपेक्षता के साथ कई मामले में ढुलमुल नज़र आई । भयभीत कांग्रेस धर्म निरपेक्षता का चोला में हिंदुत्व का पैबंद लगाने की कोशिश करने लगी , जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस की पकड़ मुसलमानो में तो कम हुई ही आम जनमानस में भी पकड़ कमज़ोर होती चली गई । कांग्रेस के इस भिरुपन से साम्प्रदायिक शक्तियों को झूठ और अफ़वाह फैलाने का मौक़ा मिल गया और देश में चौतरफ़ा नफ़रत का वातावरण निर्मित होने लगा । इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस की चुप्पी से साम्प्रदायिक ताक़त को बल मिला ।
जबकि ये वही कांग्रेस हैं जिससे नेता महात्मा गांधी पर 1948 में दंगों के समय मुस्लिम परस्ती का जब हिंदूवादियों ने ने आरोप लगाया था तब उन्होंने सीना ठोंक कर कहा था , हाँ , मैं भारत में मुस्लिम परस्त हूँ तो पाकिस्तान में हिंदू और सिख परस्त हूँ।
ये वही कांग्रेस है जिसके प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में खड़े होकर आरएसएस व दूसरे हिंदू संगठनों की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हुए मुसलमानो के तरफ़ खड़ी थी।

टिप्पणियाँ

  1. अच्छा और आज के लिये जरूरी लेखन , बहुत बहुत बधाई कौशल भाई 👍

    जवाब देंहटाएं
  2. हमारे अपराध अपराध और उनके अपराध क्रूरता उनका बड़पन , लेखक हींन भावना से ग्रस्त है ,
    घटिया , थर्ड क्लास rndtv ग्रुप के पत्तलकर वायर, शेखर गुप्ता , रबिष कुमार बरखा दत् आरफा खानम जैसे कि मानसिकता वाला आर्टिकल सीरीज ,

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट