सियासी-फ़सल -१४
संतुष्टिकरण
एक पतली सी ऊपरी परत है, जिसके नीचे हिंदुत्व की दलदल है। धर्म निरपेक्षता को परे ढकेलकर हिंदुत्व अपनी विराट ताक़त और उग्रता के साथ जमकर बैठ गया है। उसका प्रभाव इतने गहरे उतर चुका है कि लाखों-करोड़ों हिंदू, जवान और बूढ़े, अमीर और ग़रीब , बड़े और छोटे सभी अपनी प्रारम्भिक भिन्न-भिन्न राजनैतिक प्रतिबद्धताओ के बावजूद चाहते हैं कि सरकार अल्पसंख्यकों और उनमें भी ख़ासकर मुसलमानो के प्रति उदार करना छोड़ दें क्योंकि उन्हें लगता है कि हिंदुओ की क़ीमत पर मुसलमानो का संतुष्टिकरण किया जा रहा है। (स्टर्न राबर्ट चेंज़िंग इंडिया केम्ब्रिज पृष्ठ 26)
बदलते इंडिया का यह रूप आने वाले भारत का यदि यह ख़ाका खींच रहा है तो इसमें हैरान होने की ज़रूरत इसलिए भी नहीं होनी चाहिए कि जब सरकार के पास महँगाई, बेरोज़गारी दूर करने का उपाय न हो स्वास्थ्, शिक्षा , पानी को लेकर पैसे न हो और सत्ता हासिल कर अपनी जेब भरने का ही ध्येय हो तो धर्म और जाति के मुद्दों को ही उछाला जाता है जिससे युवाओं का ध्यान भटक जाए।
जैसे कुछ ज्योतिषों के पास रटे रटाए जुमले होते हैं, जिसे वे अपने पास आने वाले हर व्यक्ति के पास शब्दों की चाशनी में बोलते हैं और आदमी को लगता है कि उसके साथ वही हो रहा है जैसे-
आप मेहनत तो बहुत करते हो लेकिन उतना परिणाम नहीं मिलता , हर व्यक्ति कम काम कर ज़्यादा पाना चाहता है इसलिए वह इस बात पर आसानी से आ जाता है । इसी तरह तुम्हारी तरक़्क़ी में बाधा कोई तुम्हारा अपना ही नज़दीकी है।
इसी तरह से सियासतदारो का रवैया है । पाकिस्तान से बँटवारे के बाद कांग्रेस की लगातार सत्ता से बेचैन राजनैतिक दलो ने कभी जाति तो कभी धर्म के नाम पर राजनीति करते हुए उन बातों को मुद्दा बनाया जिसका भारत के विकास से कोई ख़ास लेना-देना नहीं रहा। मुसलमानो-ईसाई , दलित-आदिवासियों की तकलीफ़ों पर खड़ा होने का मतलब को वोट बैंक के रूप में प्रस्तुत किया गया। हालत यह हो गई है कि किसी मुसलमानो के पक्ष में खड़े होने का मतलब देश द्रोही हो गया है?
भारतीय राजनीति में धर्म और जाति का यह खेल बड़े ही विभत्स और घिनौने तरीक़े से खेला गया , जिसका परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी आबादी को जाने अनजाने में राजनीति से परे रखने की कोशिश हुई। यदि दलित और आदिवासियों को आरक्षण नहीं होता तो वे भी राजनैतिक नेतृत्व से वंचित कर दिए जाते।
अल्पसंख्यकों के संतुष्टिकरण को लेकर उठाए जा रहे सवाल नया नहीं है, बँटवारे के बाद से ही यह मुद्दा उठने लगा था लेकिन, नेहरु से इंदिरा तक इन मुद्दों को उठाने वाले पर दबाव था या कहें कि सरकार ने ऐसे साम्प्रदायिक शक्तियों को क़ाबू पर रखा था और धर्म निरपेक्षता की परम्परा को इतना मज़बूत आधार दिया था कि साम्प्रदायिक शक्तियाँ हावी नहीं हो पाई।
समान नागरिक संहिता एक ऐसा ही मुद्दा था जिससे हिंदुओ को लग सकता था कि इस क़ानून के चलते मुसलमान उनका हक़ मार रहे हैं इसलिए साम्प्रदायिक ताक़तों ने इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और इसमें सच्चाई कम अफ़वाहें ज़्यादा थी।
ये है कि भारतीय मुसलमानो की आबादी हिंदुओ की बनिस्बत तेज़ी से बढ़ रही है लेकिन 1991 के बाद से आबादी बढ़ने के प्रतिशत में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है। लेकिन इससे पहले हिंदुओं में आबादी की बढ़त 24.15 प्रतिशत के मुक़ाबले मुसलमानो की आबादी 30.59 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ते रही। और इसी को कट्टर वादियों ने मुद्दा बनाया। कई हिंदू संगठनों ने इस मामले को अतिरेक करके प्रचारित किया।
विश्व हिंदू परिषद से लेकर कई कट्टर हिंदू संगठनों द्वारा वितरित किए गए पैम्पलेट में ऐसा प्रचार किया गया मानो हिंदुत्व ख़तरे में आ गया है । इन संगठनों ने कहा कि आबादी बढ़ने की वजह मुसलमानो को चार बीबी रखने की अनुमति देना है।यह मुस्लिम तुष्टि करण है । पैम्पलेट में तो यहाँ तक कहा गया कि यही हाल रहा तो हिंदू अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएँगे।
जबकि वास्तविकता को धरातल की कसौटी पर खरा उतारा जाय तो भी इस तरह से आबादी बढ़ती रही तब भी मुस्लिम आबादी को हिंदू आबादी के बराबर पहुँचने में ढाई सौ साल से अधिक लग जाएँगे।
जनसंख्या बढ़ोतरी का वास्तविक कारण दुनिया भर के विशेषज्ञों ने जो सामने लाया है उसके मुताबिक़ इसकी वजह सामाजिक आर्थिक कारण हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात जैसे विकसित राज्य में जनसंख्या वृद्धि का अनुपात सबसे कम है। ऐसे में जनसंख्या वृद्धि को धर्म का आधार बताना सिवाय संप्रदायिकता के कुछ भी नहीं है।
लेकिन सियासतदारो को इससे राजनैतिक फ़ायदे मिलते हैं, इसलिए इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया गया। भाजपा और शिवसेना ने तो इसे अपने घोषणा पत्र में शामिल किया है कि एक देश में एक क़ानून होना चाहिए। यह अलग बात है कि सत्ता में आते ही वह इस पर ख़ामोश हो जाती है।
जिन हिंदुओ को लगता है कि भाजपा या दूसरे हिंदू संगठन इस मुद्दे को उठाकर ठीक कर रहे हैं , उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे वास्तव में सिर्फ़ मुसलमानो को अपमानित करना ध्येय है ताकि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके। यदि ऐसा नहीं होता तो जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष गुरु गोवलकर इस मुद्दे पर 20 अगस्त 1972 को जनसंघ का मुखपत्र रहे मदरलैण्ड के संवाददाता से समान नागरिक क़ानून को लेकर पूछे गए सवाल पर कहा था-
“ ऐसा नहीं है कि समान नागरिक क़ानून पर मुझे कोई आपत्ति है लेकिन, साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई चीज़ इसलिए स्पृहनिय नहीं हो जाती क्योंकि उसका उल्लेख संविधान में नहीं है। कोई भी वर्ग, समुदाय या बिरादरी अगर अपनी पहचान या व्यक्तित्व को बरक़रार रखने की कामना करती है तो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है, बशर्ते यह पहचान राष्ट्रभक्ति की मार्ग में बाधा न डालती हो । जब तक मुसलमान इस देश से और उसकी संस्कृति से मुहब्बत करते रहेंगे , हम उनकी अपनी जीवन प्रणाली का स्वागत करेंगे” ( बढ़ती दूरियाँ-गहराती दरार पृष्ठ 199-200)
लेकिन जब जब इस मामले में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना दिखी , इस मुद्दे को संप्रदायिक रंग देते तक उठाया गया। जबकि हक़ीक़त यह है कि मध्ययुगिन दौर में मुसलमान ही नहीं हिंदू भी बहुपत्नी प्रथा के हिमायती रहे हैं और अब तक स्त्री-पुरुष के आधिकारिक आँकड़े आने के बाद यह स्पष्ट हो चला है कि हिंदू में हज़ार पुरुष में 993 और मुस्लिमों में हज़ार पुरुष में 937 स्त्री हैं। पुरुष के एक से अधिक स्त्री से शादी करने से जनन क्षमता बढ़ने की संभावना नहीं है।
इसी तरह परिवार नियोजन को लेकर भी मुस्लिमो को निशाना बनाया जाता है। और कहा जाता है कि इस्लाम अपने अनुयायियों को गर्भ निरोधक उपायों को अपनाने की अनुमति नहीं देता। जबकि कुछ आधुनिक धर्म वक्ताओ ने गोली और कंडोम की अनुमति दी है। इस संबंध में मुसलमान जिन्हें सर्वोच्च आदर देते हैं इमाम ग़ज़ाली (1058-1111) धर्म के पुनर्जीवनकार के रूप में माना जाता है , ने कुछ स्थितियों में जन्म नियंत्रण की सिफ़ारिश की है । तथा यह भी कहा है कि गर्भ निरोधक उपायों का इस्तेमाल शारीरिक सुख के लिए अपनाना ग़लत है।
अब तो मुसलमान ही नहीं ग्रामीण ठीकानो में रहने वालों ने भी अपने भविष्य को देखते हुए जनसंख्या नियंत्रण कर रहे हैं। यही नहीं बड़ौदा के आपरेशन रिसर्च ग्रुप ने 1970-71 में ऐसा ही एक सर्वेक्षण कर बताया था कि 13.8 प्रतिशत हिंदुओ की तुलना में 8.8 प्रतिशत मुसलमान संतति निग्रह का पालन कर रहे हैं। 80-81 में उनके अगले सर्वे में हिंदुओ के 36.1 प्रतिशत की तुलना में 22.5 प्रतिशत हो गया।
एक पतली सी ऊपरी परत है, जिसके नीचे हिंदुत्व की दलदल है। धर्म निरपेक्षता को परे ढकेलकर हिंदुत्व अपनी विराट ताक़त और उग्रता के साथ जमकर बैठ गया है। उसका प्रभाव इतने गहरे उतर चुका है कि लाखों-करोड़ों हिंदू, जवान और बूढ़े, अमीर और ग़रीब , बड़े और छोटे सभी अपनी प्रारम्भिक भिन्न-भिन्न राजनैतिक प्रतिबद्धताओ के बावजूद चाहते हैं कि सरकार अल्पसंख्यकों और उनमें भी ख़ासकर मुसलमानो के प्रति उदार करना छोड़ दें क्योंकि उन्हें लगता है कि हिंदुओ की क़ीमत पर मुसलमानो का संतुष्टिकरण किया जा रहा है। (स्टर्न राबर्ट चेंज़िंग इंडिया केम्ब्रिज पृष्ठ 26)
बदलते इंडिया का यह रूप आने वाले भारत का यदि यह ख़ाका खींच रहा है तो इसमें हैरान होने की ज़रूरत इसलिए भी नहीं होनी चाहिए कि जब सरकार के पास महँगाई, बेरोज़गारी दूर करने का उपाय न हो स्वास्थ्, शिक्षा , पानी को लेकर पैसे न हो और सत्ता हासिल कर अपनी जेब भरने का ही ध्येय हो तो धर्म और जाति के मुद्दों को ही उछाला जाता है जिससे युवाओं का ध्यान भटक जाए।
जैसे कुछ ज्योतिषों के पास रटे रटाए जुमले होते हैं, जिसे वे अपने पास आने वाले हर व्यक्ति के पास शब्दों की चाशनी में बोलते हैं और आदमी को लगता है कि उसके साथ वही हो रहा है जैसे-
आप मेहनत तो बहुत करते हो लेकिन उतना परिणाम नहीं मिलता , हर व्यक्ति कम काम कर ज़्यादा पाना चाहता है इसलिए वह इस बात पर आसानी से आ जाता है । इसी तरह तुम्हारी तरक़्क़ी में बाधा कोई तुम्हारा अपना ही नज़दीकी है।
इसी तरह से सियासतदारो का रवैया है । पाकिस्तान से बँटवारे के बाद कांग्रेस की लगातार सत्ता से बेचैन राजनैतिक दलो ने कभी जाति तो कभी धर्म के नाम पर राजनीति करते हुए उन बातों को मुद्दा बनाया जिसका भारत के विकास से कोई ख़ास लेना-देना नहीं रहा। मुसलमानो-ईसाई , दलित-आदिवासियों की तकलीफ़ों पर खड़ा होने का मतलब को वोट बैंक के रूप में प्रस्तुत किया गया। हालत यह हो गई है कि किसी मुसलमानो के पक्ष में खड़े होने का मतलब देश द्रोही हो गया है?
भारतीय राजनीति में धर्म और जाति का यह खेल बड़े ही विभत्स और घिनौने तरीक़े से खेला गया , जिसका परिणाम यह हुआ कि एक बड़ी आबादी को जाने अनजाने में राजनीति से परे रखने की कोशिश हुई। यदि दलित और आदिवासियों को आरक्षण नहीं होता तो वे भी राजनैतिक नेतृत्व से वंचित कर दिए जाते।
अल्पसंख्यकों के संतुष्टिकरण को लेकर उठाए जा रहे सवाल नया नहीं है, बँटवारे के बाद से ही यह मुद्दा उठने लगा था लेकिन, नेहरु से इंदिरा तक इन मुद्दों को उठाने वाले पर दबाव था या कहें कि सरकार ने ऐसे साम्प्रदायिक शक्तियों को क़ाबू पर रखा था और धर्म निरपेक्षता की परम्परा को इतना मज़बूत आधार दिया था कि साम्प्रदायिक शक्तियाँ हावी नहीं हो पाई।
समान नागरिक संहिता एक ऐसा ही मुद्दा था जिससे हिंदुओ को लग सकता था कि इस क़ानून के चलते मुसलमान उनका हक़ मार रहे हैं इसलिए साम्प्रदायिक ताक़तों ने इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और इसमें सच्चाई कम अफ़वाहें ज़्यादा थी।
ये है कि भारतीय मुसलमानो की आबादी हिंदुओ की बनिस्बत तेज़ी से बढ़ रही है लेकिन 1991 के बाद से आबादी बढ़ने के प्रतिशत में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है। लेकिन इससे पहले हिंदुओं में आबादी की बढ़त 24.15 प्रतिशत के मुक़ाबले मुसलमानो की आबादी 30.59 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ते रही। और इसी को कट्टर वादियों ने मुद्दा बनाया। कई हिंदू संगठनों ने इस मामले को अतिरेक करके प्रचारित किया।
विश्व हिंदू परिषद से लेकर कई कट्टर हिंदू संगठनों द्वारा वितरित किए गए पैम्पलेट में ऐसा प्रचार किया गया मानो हिंदुत्व ख़तरे में आ गया है । इन संगठनों ने कहा कि आबादी बढ़ने की वजह मुसलमानो को चार बीबी रखने की अनुमति देना है।यह मुस्लिम तुष्टि करण है । पैम्पलेट में तो यहाँ तक कहा गया कि यही हाल रहा तो हिंदू अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएँगे।
जबकि वास्तविकता को धरातल की कसौटी पर खरा उतारा जाय तो भी इस तरह से आबादी बढ़ती रही तब भी मुस्लिम आबादी को हिंदू आबादी के बराबर पहुँचने में ढाई सौ साल से अधिक लग जाएँगे।
जनसंख्या बढ़ोतरी का वास्तविक कारण दुनिया भर के विशेषज्ञों ने जो सामने लाया है उसके मुताबिक़ इसकी वजह सामाजिक आर्थिक कारण हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात जैसे विकसित राज्य में जनसंख्या वृद्धि का अनुपात सबसे कम है। ऐसे में जनसंख्या वृद्धि को धर्म का आधार बताना सिवाय संप्रदायिकता के कुछ भी नहीं है।
लेकिन सियासतदारो को इससे राजनैतिक फ़ायदे मिलते हैं, इसलिए इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया गया। भाजपा और शिवसेना ने तो इसे अपने घोषणा पत्र में शामिल किया है कि एक देश में एक क़ानून होना चाहिए। यह अलग बात है कि सत्ता में आते ही वह इस पर ख़ामोश हो जाती है।
जिन हिंदुओ को लगता है कि भाजपा या दूसरे हिंदू संगठन इस मुद्दे को उठाकर ठीक कर रहे हैं , उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे वास्तव में सिर्फ़ मुसलमानो को अपमानित करना ध्येय है ताकि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके। यदि ऐसा नहीं होता तो जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष गुरु गोवलकर इस मुद्दे पर 20 अगस्त 1972 को जनसंघ का मुखपत्र रहे मदरलैण्ड के संवाददाता से समान नागरिक क़ानून को लेकर पूछे गए सवाल पर कहा था-
“ ऐसा नहीं है कि समान नागरिक क़ानून पर मुझे कोई आपत्ति है लेकिन, साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई चीज़ इसलिए स्पृहनिय नहीं हो जाती क्योंकि उसका उल्लेख संविधान में नहीं है। कोई भी वर्ग, समुदाय या बिरादरी अगर अपनी पहचान या व्यक्तित्व को बरक़रार रखने की कामना करती है तो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है, बशर्ते यह पहचान राष्ट्रभक्ति की मार्ग में बाधा न डालती हो । जब तक मुसलमान इस देश से और उसकी संस्कृति से मुहब्बत करते रहेंगे , हम उनकी अपनी जीवन प्रणाली का स्वागत करेंगे” ( बढ़ती दूरियाँ-गहराती दरार पृष्ठ 199-200)
लेकिन जब जब इस मामले में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना दिखी , इस मुद्दे को संप्रदायिक रंग देते तक उठाया गया। जबकि हक़ीक़त यह है कि मध्ययुगिन दौर में मुसलमान ही नहीं हिंदू भी बहुपत्नी प्रथा के हिमायती रहे हैं और अब तक स्त्री-पुरुष के आधिकारिक आँकड़े आने के बाद यह स्पष्ट हो चला है कि हिंदू में हज़ार पुरुष में 993 और मुस्लिमों में हज़ार पुरुष में 937 स्त्री हैं। पुरुष के एक से अधिक स्त्री से शादी करने से जनन क्षमता बढ़ने की संभावना नहीं है।
इसी तरह परिवार नियोजन को लेकर भी मुस्लिमो को निशाना बनाया जाता है। और कहा जाता है कि इस्लाम अपने अनुयायियों को गर्भ निरोधक उपायों को अपनाने की अनुमति नहीं देता। जबकि कुछ आधुनिक धर्म वक्ताओ ने गोली और कंडोम की अनुमति दी है। इस संबंध में मुसलमान जिन्हें सर्वोच्च आदर देते हैं इमाम ग़ज़ाली (1058-1111) धर्म के पुनर्जीवनकार के रूप में माना जाता है , ने कुछ स्थितियों में जन्म नियंत्रण की सिफ़ारिश की है । तथा यह भी कहा है कि गर्भ निरोधक उपायों का इस्तेमाल शारीरिक सुख के लिए अपनाना ग़लत है।
अब तो मुसलमान ही नहीं ग्रामीण ठीकानो में रहने वालों ने भी अपने भविष्य को देखते हुए जनसंख्या नियंत्रण कर रहे हैं। यही नहीं बड़ौदा के आपरेशन रिसर्च ग्रुप ने 1970-71 में ऐसा ही एक सर्वेक्षण कर बताया था कि 13.8 प्रतिशत हिंदुओ की तुलना में 8.8 प्रतिशत मुसलमान संतति निग्रह का पालन कर रहे हैं। 80-81 में उनके अगले सर्वे में हिंदुओ के 36.1 प्रतिशत की तुलना में 22.5 प्रतिशत हो गया।
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