सियासी-फ़सल-११

अयोध्या -विवाद
विभाजन के बाद हिंदू-मुस्लिम एकता को सबसे बड़ा आघात किसी ने पहुँचाया तो वह अयोध्या विवाद था। इस विवाद के चलते सियासत ने वोट के ध्रुवीकरण के लिए उन बातों को हवा दी जिससे दोनो ही समुदाय के दिलो पर चोट पहुँचाई जा सके । एक दूसरे के प्रति अविश्वास की खाई को गहरी करने की होड़ सी मच गई । फ़ैसला न्यायालय से ही हुआ लेकिन ऐसा किया गया मानो वे सरकार बनाते ही इस विवाद को सुलझा लेंगे और न्यायालय से इतर जाकर मंदिर बना लेंगे । इस सियासी खेल में मुसलमानो को ही नहीं उन तमाम हिंदुओ को भी देशद्रोही तक की संज्ञा दी गई , और अब जब न्यायालय के फ़ैसले से ही मंदिर बन रहा है तो स्वयं की पीठ थपथपाने की बेशर्मी भी जारी है।
लेकिन इस पूरे विवाद के दौरान वोटों के ध्रुवीकरण के लिए हिंदू और मुसलमानो को आमने-सामने खड़ा करने की कोशिश में जो शब्द बाण चलाए गए वह शर्मनाक तो था ही ऐसे घाव भी दिए जो आसानी से भरना मुश्किल है। कट्टर हिंदुवादियो ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह देश उनका है और वे जो चाहेंगे करेंगे। यह एक तरह से मुसलमानो व दूसरे धर्म के लोगों में भय उत्पन्न करने और हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का कुत्सित प्रयास था। संप्रदायिकता की यह चरम स्थिति थी, जिसने हिंदुत्व की मूल भावना की हत्या करने से भी परहेज़ नहीं किया। राममंदिर आंदोलन से जुड़े नेता उसी तरह से हुंकार भर रहे थे, जिस तरह से कोई युद्ध के लिए जाता है। आर या पार।
इतिहास गवाह है कि जब भी श्रेष्ठता की लड़ाई हुई है , तबाही के साथ ही उसका ख़ात्मा हुआ है। एक तरफ़ कट्टर हिंदू चाहते थे कि हिंदुओ की भावना का सम्मान करते हुए मुसलमान राम जन्म भूमि उन्हें सौंप दे तो दूसरी तरफ़ मुसलमानो को डर था कि मुसलमानो को कुचलने की यह एक शुरुआत है, अगर वे श्री राम जन्म भूमि सौपने को राज़ी हो गए तो फिर कट्टर धर्मांध हिंदू मथुरा बनारस के रास्ते दिल्ली के जामा मस्जिद तक एक एक कर पहुँच जाएँगे। क्योंकि धर्मांध हिंदुओ की सूची में मथुरा की ईदगाह और बनारस के साथ साथ दिल्ली की जामा मस्जिद के अलावा मुग़ल क़ालीन कितने ही प्रतीक निशाने पर हैं।
इसलिए मुसलमानो को लगता था कि श्रीराम जन्म भूमि विवाद सिर्फ़ एक मस्जिद का मामला नहीं है बल्कि सन 711 से शुरू हुई मुस्लिम शासकों की हिंदू शासकों पर जीत के अपमान का प्रतिशोध है , जो कुंठा का रूप ले चुका है। कट्टर हिंदू आज भी गाहे- बगाहे मुस्लिम शासकों के भारत पर राज करने को लेकर अपमानित महसूस करने का दावा करते हैं। ऐसे धर्मांध हिंदुओ का दावा है कि मुसलमान शासकों ने हिंदू राजा महाराजाओ को छल-प्रपंच से हराया है और हिंदुओ की सहृदयता का फ़ायदा उठाया है।
लेकिन सच तो यह है कि उस युग में छल-कपट-प्रपंच तो हिंदू राजाओं के बीच भी चलता रहा है । कई राजा अय्याशी में डूबे हुए थे और जनता पर घोर अत्याचार करते थे, ऐसे में हार को जायज़ ठहराने तर्क गढ़ा जाना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं है।
सच तो यह है कि मध्ययुग में भारत इतने टुकड़ों में बँटा था कि एक राजा दूसरे राजा का ही नहीं बल्कि एक राज में दूसरे राज के लोगों के साथ भी घिनौना व्यवहार किया जाता था। जात-पात के उस दौर में कई जात के लोगों के साथ तो जानवरो से भी बदतर व्यवहार होता था।
अयोध्या विवाद पर वैसे तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन फिर भी कुछ तथ्य ऐसे हैं जिसे बार-बार इसलिए भी लिखा जाना चाहिए , ताकि धर्मांध हिंदुओ और कट्टर मुसलमानो के द्वारा जो अफ़वाहें फैलाकर देश की अखंडता पर प्रहार करने की जो कोशिश की जाती रही , उसे रोका जा सके। सियासी फ़ायदे के लिए जो कुचक रचा जाता है उसका पर्दाफ़ाश हो, और आम जन मानस यह भी जान ले कि इस देश की भलाई और तरक़्क़ी किन बातों में हैं।
श्रीराम हिंदू समाज के आराध्य देव हैं। और वे इस देश के हवा-पानी, मिट्टी , पेड़-पौधे, कण-कण में विद्यमान हैं। और इस आराध्य देव की जन्म-भूमि का क्या महत्व हो सकता है यह कहने की बात नहीं है। यही वजह है कि श्रीराम की जन्म भूमि अयोध्या के प्रति लोगों की अगाध आस्था है, और इस जगह पर बाबरी मस्जिद कभी भी बर्दाश्त नहीं की गई। और यह बात समझने में शासकों से भूल हुई, चाहे मुग़लकालीन हो अंग्रेज़ हो या फिर आज़ाद भारत के शासक हो ।
श्रीराम जन्म भूमि को लेकर साफ़ है कि यहाँ प्रभु रामजी के मंदिर को ध्वस्त कर बाबर के सिपहसलार मीर बाँकी ने 1528 में मस्जिद बना दी। 1528 से 1855 तक इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता कि इस मस्जिद का कभी विरोध हुआ हो । इसलिए हम यहाँ लिख रहे हैं कि इस मस्जिद का सर्वप्रथम विरोध अंग्रेज़ी शासनकाल में हुआ। अंग्रेज़ी शासन की लापरवाही से यह विरोध दंगे में तब्दील हो गया और दोनो पक्ष के पैंसठ लोग मारे गए। इसके दो साल बाद मस्जिद के बाहरी आँगन में एक पुजारी व उनके समर्थकों ने क़ब्ज़ा कर श्रीराम-जानकी का मंदिर बनवा दी । इस पर जब विवाद हुआ तो अंगरेजो ने 1859 में दोनो समुदाय की बैठक बुलाकर दोनो हिस्सों को अलग करने एक दीवाल खड़ी करवा दी।
इसके बाद 1885 में स्थायी मंदिर बनाने अदालत में याचिका लगाई गई, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद अंग्रेज़ी शासन के आधी सदी तक दोनो ही समुदाय में एकता बनी रही। हालाँकि तब भी कुछ कट्टरपंथी उकसाने में लगे रहे। आधी सदी बाद 1934 में कुछ नेताओ के उकसावे पर कुछ लोगों ने मस्जिद में घुसकर तोड़फोड़ की। लेकिन अंग्रेज़ी शासन ने और स्थानीय मुसलमान और हिंदुओ ने समझदारी भरा फ़ैसला लिया। इसके बाद आज़ादी मिलते तक यहाँ किसी भी तरह के विवाद की ख़बर नहीं है।
आज़ादी के दो साल बाद 1949 को अचानक भगवान श्रीराम के प्रगट होने का हल्ला मचा। चूँकि सरकार ने सजकता का परिचय दिया और तनाव को देखते हुए मस्जिद में ताला लगवा दिया तो मामला शांति से निपट गया। सरदार पटेल ने तब के मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश गोविंद बल्लभ पंत को सीधे निर्देश दिया कि हिंदू- मुस्लिम एकता में बाधा बनने वाले किसी भी तत्व को बर्दाश्त न करें और ज़रूरत पड़े तो बल प्रयोग कर कड़ी कार्रवाई करें। इसके बाद दोनो ही समुदाय ने अदालतों का दरवाज़ा खटखटाया । अदालत ने दोनो की याचिका ख़ारिज कर दी। इसके बाद वह साल आया 1983 जब विश्व हिंदू परिषद ने हिंदुओ से सीधे आह्वान किया कि मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर लेना चाहिए और उसी स्थान पर श्रीराम जी का भव्य मंदिर बनाना चाहिये।

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