सियासी-फ़सल-१०
कश्मीर का मौजूदा सच यह है कि यह पूरी तरह सियासी मामला हो चुका है। क्योंकि भारत के जितने भी राज्य हैं उसमें वह इकलौता मुस्लिम बहुल राज्य है। इसलिए कश्मीर की समस्या को भारतीय मुसलमानो की राष्ट्रभक्ति की कसौटी पर जाँचा जाता है। जबकि कश्मीर के मुसलमानो ने भारत के दूसरे राज्यों के मुसलमानो से अपने को जोड़ने की कोशिश कभी नहीं की लेकिन, वहाँ के हालात पर तटस्थता और चुप्पी अब सियासी फ़सल काटने वालों के लिए स्वर्ग बना हुआ है। जो देश पर भारी पड़ने लगा है। यहाँ तक कि कश्मीर में राजनीति करने वाले मुस्लिम नेताओ ने भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया । कश्मीर में शुरुआत से ही भारत विरोधी ताक़तें सक्रिय रही , क्योंकि भले ही राजा हरिसिंह ने भारत में विलय की घोषणा कर दी थी लेकिन वे अधिसंख्य मुस्लिमों को अलग राष्ट्र के सपने से दूर नहीं कर पाए । ऊपर से पाक मंसूबो के चक्कर में वहाँ के कई मुसलमान अब भी पृथक राष्ट्र की उम्मीद पाले हुए है। हालाँकि भारत ने साफ़ कर दिया है और देश विरोधी हरकतों पर समय समय कार्रवाई भी की लेकिन पूरी तरह दमन नहीं हुआ।
यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र में नेहरु द्वारा कश्मीर को भारत में विलय की घोषणा के बाद भी शेख़ अब्दुल्ला का रवैया असमंजस भरा रहा, जिसके चलते उन्हें सोलह साल क़ैद में रखा गया। और शेख़ अब्दुल्ला के कश्मीर को भारत का अंग मानने के बाद ही रिहाई हुई। और इसके बाद वे जीवन काल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। उन्हें कश्मीर के अलावा और किसी से मतलब नहीं रहा। उसके बाद आए कश्मीरी नेताओ ग़ुलाम मोहम्मद बख़्शी, सादिक़, मीर क़ासिम, फ़ारूख अब्दुल्ला , ग़ुलाम नबी आज़ाद , मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने भी हालात को नज़रअन्दाज़ किया। अपनी सत्ता क़ायम रखने और तिजौरी भरने में ही मशगूल रहे कहा जाय तो ग़लत नहीं होगा।
कश्मीरी नेताओ के इस रवैए से नाराज़ तत्कालीन गृह मंत्री शंकर राव चौहान ने तो एक बार कड़ी टिप्पणी की कि कश्मीर के विकास के लिए जो कुछ दिया जाता है वह मंत्रियों और अफ़सरो की जेब में चला जाता है। कश्मीरी नेताओ ने जिस तरह से सत्ता के लिए चुनावों में हेरा फेरी की , नतीजों से धोखाधड़ी की, योजनाओं की राशि में जमकर भ्रष्टाचार किया , स्कूल-अस्पताल और दूसरी बड़ी योजनाओं की उपेक्षा की , इससे वहाँ की जनता में निराशा है और इस हालात का पाकिस्तान ने अपने नापाक गतिविधियों के लिए फ़ायदा उठाया।
कश्मीर के मामले में शुरुआती ग़लती को भी सुधारने का प्रयास भी ठीक से नहीं किया गया। नेहरु की कश्मीर के प्रति रुचि और धर्म निरपेक्षता की छवि को पूरे विश्व में स्थापित करने की ज़िद की वजह से भी हालात बिगड़ते चले गए ।
नेहरु इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि हिंदुस्तान कभी धर्म निरपेक्षता का परित्याग कर सकता है, उनको विश्वास था कि कश्मीर का दर्जा जो हो, धर्म निरपेक्षता तो बरक़रार रहेगी ही। इसलिए उन्होंने कश्मीर की नियति को भारतीय मुसलमान की नियति से जोड़ने से इंकार कर दिया। उनके लिए धर्म निरपेक्षता एक धर्म था, वह सौदेबाज़ी की दुकान नहीं थी। इसलिए उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि भारत धर्म निरपेक्ष बना रहेगा , कश्मीर उसके साथ बना रहे या नही , मुसलमान नागरिकों के साथ हिंदुओ के समकक्ष , समानता का व्यवहार किया जाएगा। और संविधान ने इसकी ज़मानत दी है।
( डॉक्टर रफ़ीक जकरिया की किताब - बढ़ती दूरियाँ-गहराती दरार पृष्ठ -267)
उस दौर की एक बड़ी चूक यह भी रही कि भारत और कश्मीर के मुसलमानो को क़रीब लाने का प्रयास किसी ने नहीं किया। और इसके लिए सभी राजनैतिक दल ज़िम्मेदार हैं। भारत दुनिया भर में नये-नये मुक़ाम हासिल कर रहा था , लेकिन कश्मीर के दुखद हालात पर ध्यान ही नहीं दिया गया। जबकि भारत और कश्मीर के जुड़ाव के लिए इस्लाम एक सुदृढ़ सम्बंध-सूत्र हो सकते थे। जबकि दोनो क़रीब आते तो हालात इस हद तक नहीं बिगड़ते कि सियासी फ़ायदे का ज़रिया बन जाये। उलटा कश्मीर के हालात को लेकर सियासतदारो ने शेष भारत के मुसलमानो को निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश की । शेष भारत के मुसलमानो की हालात इससे समझ सकते हैं कि पाकिस्तान तो उन्हें लानत भेजता ही है , आम हिंदुस्तानी भी उन्हें शक की नज़र से देखने लगा।
पाकिस्तान का कश्मीर पर दावा सिर्फ़ बहुसंख्यक मुसलमानो की वजह से है , जबकि वह दो राष्ट्र के सिद्धांत पर पूरी तरह फ़ेल हो चुका है, और उसकी हालत बदतर हो चुकी है। आम पाकिस्तानियों का जीना कठिन हो गया है। सेना का प्रभाव बहुत ज़्यादा होने से हालात तानाशाही राजजैसे है। लेकिन वह कश्मीर को लेकर अपनी हरकतों से बाज़ ही नहीं आ रहा।
कश्मीर के ये हालात नहीं होते तो धारा 370 और 35 ए को लेकर इतना बवाल ही नहि होता। कश्मीर के हालात के लिए पाकिस्तान के अलावा धारा 370 और 35 ए को भी ज़िम्मेदार माना जाता है और इसका दोष नेहरु को दिया जाता है। ये सच है कि उस मामले में नेहरु से रणनीतिक चूक हुई है लेकिन इसके लिए और भी तथ्य ज़िम्मेदार रहे हैं।
सरकारों से चूक होती है लेकिन उसे सिर्फ़ राजनैतिक फ़ायदे के फेर में अपराध की संज्ञा देना दुष्टता ही मानी जाएगी ।
जबकि कश्मीर मामले का सबसे दुखद पहलू तो यह भी है कि कोई भी राजनैतिक पार्टी ने इस समस्या को सुलझाने की कोशिश ही नहीं की , उलटे इस समस्या के आड़ में राजनैतिक मक़सद को पूरा किया गया । और उन ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को हवा दी गई जिससे लोगों का ध्यान बुनियादी ज़रूरतों से भटक जाए ।
दरअसल धारा 370 और 35 ए को मुद्दा बनाने की असली वजह हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करना है जबकि कश्मीर समस्या का जड़ पाकिस्तान और वहाँ के लोगों का अविश्वास है।
यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अपने पार्टी के एजेंडे के तहत धारा 370 और 35 ए को जब हटाते हुए तमाम विरोधी दल के बड़े नेताओ अब्दुल्ला , महबूबामुफ़्ती सहित कई लोगों को हिरासत में लेते हुए कश्मीर राज्य को तीन हिस्सों में बाँटा, तब भी वहाँ शांति स्थापित कहाँ हो पाया ।
भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान द्वारा फैलाये जा रहे ज़हर से निपटने की बजाय कश्मीरियो पर अविश्वास या संदेह का जो बीज बोया जा रहा है या बोया जाता रहा है वह भी वहाँ के हालात के लिए ज़िम्मेदार रहे हैं। जबकि यह सत्य है कि उग्रवाद से कश्मीरियो की समस्या का हल नहीं होने वाला है क्योंकि उग्रवाद से नुक़सान कश्मीर का ही हुआ है ।
अब भी राजनैतिक पार्टियाँ यदि सियासत करने की बजाय ईमानदारी से कश्मीर समस्या का हल करना चाहते हैं तो उन्हें कश्मीरी और शेष भारतीय मुसलमानो के बीच संबंधो को बढ़ाने की दिशा में ठोस क़दम उठाने चाहिए ।
कश्मीर समस्या का एक और मुद्दा कश्मीरी पंडित भी है । कश्मीरी पंडित डोगरा शासन (1846-1947) के दौरान घाटी की जनसंख्या के कृपा-प्राप्त अंग थे। उनमें से 20 प्रतिशत ने 1950 के भूमि सुधारों के परिणामस्वरूप घाटी छोड़ दी,और 1981 तक पंडित आबादी का कुल 5 प्रतिशत रह गए।1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के दौरान कट्टरपंथी इस्लामवादियों और आतंकवादियों द्वारा उत्पीड़न और धमकियों के बाद वे अधिक संख्या में जाने लगे। 19 जनवरी 1990 की घटनाएँ विशेष रूप से शातिराना थीं। उस दिन, मस्जिदों ने घोषणाएँ कीं कि कश्मीरी पंडित काफ़िर हैं और पुरुषों को या तो कश्मीर छोड़ना होगा, इस्लाम में परिवर्तित होना होगा या उन्हें मार दिया जाएगा। जिन लोगों ने इनमें से पहले विकल्प को चुना, उन्हें कहा गया कि वे अपनी महिलाओं को पीछे छोड़ जाएँ। कश्मीरी मुसलमानों को पंडित घरों की पहचान करने का निर्देश दिया गया ताकि धर्मांतरण या हत्या के लिए उनको विधिवत निशाना बनाया जा सके।कई लेखकों के अनुसार, 1990 के दशक के दौरान 140,000 की कुल कश्मीरी पंडित आबादी में से लगभग 100,000 ने घाटी छोड़ दी।अन्य लेखकों ने पलायन का और भी ऊँचा आँकड़ा सुझाया है जो कि 150,000 से लेकर 190,000 (लगभग 200,000 की कुल पंडित आबादी का) तक हो सकता है। तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन की एक गुपचुप पलायन संघटित करने में संलिप्तता विवाद का विषय रही जिससे योजनाबद्ध पलायन की प्रकृति विवादास्पद बनी हुई है।कई शरणार्थी कश्मीरी पंडित जम्मू के शरणार्थी शिविरों में अपमानजनक परिस्थितियों में रह रहे हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि 1990 में जब कश्मीरी पंडितो को बड़ी संख्या में प्रताड़ित किया गया तब केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी और भाजपा उसकी सहयोगी थी लेकिन सियासी फ़ायदे के लिए जो प्रचार किया गया उससे यही कहा गया कि इसके लिए कांग्रेस ही दोषी है ।
कुल मिलाकर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए कश्मीर समस्या को बेवजह हवा दी गई जिससे देश में नफ़रत का वातावरण बनाया गया।
यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र में नेहरु द्वारा कश्मीर को भारत में विलय की घोषणा के बाद भी शेख़ अब्दुल्ला का रवैया असमंजस भरा रहा, जिसके चलते उन्हें सोलह साल क़ैद में रखा गया। और शेख़ अब्दुल्ला के कश्मीर को भारत का अंग मानने के बाद ही रिहाई हुई। और इसके बाद वे जीवन काल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। उन्हें कश्मीर के अलावा और किसी से मतलब नहीं रहा। उसके बाद आए कश्मीरी नेताओ ग़ुलाम मोहम्मद बख़्शी, सादिक़, मीर क़ासिम, फ़ारूख अब्दुल्ला , ग़ुलाम नबी आज़ाद , मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने भी हालात को नज़रअन्दाज़ किया। अपनी सत्ता क़ायम रखने और तिजौरी भरने में ही मशगूल रहे कहा जाय तो ग़लत नहीं होगा।
कश्मीरी नेताओ के इस रवैए से नाराज़ तत्कालीन गृह मंत्री शंकर राव चौहान ने तो एक बार कड़ी टिप्पणी की कि कश्मीर के विकास के लिए जो कुछ दिया जाता है वह मंत्रियों और अफ़सरो की जेब में चला जाता है। कश्मीरी नेताओ ने जिस तरह से सत्ता के लिए चुनावों में हेरा फेरी की , नतीजों से धोखाधड़ी की, योजनाओं की राशि में जमकर भ्रष्टाचार किया , स्कूल-अस्पताल और दूसरी बड़ी योजनाओं की उपेक्षा की , इससे वहाँ की जनता में निराशा है और इस हालात का पाकिस्तान ने अपने नापाक गतिविधियों के लिए फ़ायदा उठाया।
कश्मीर के मामले में शुरुआती ग़लती को भी सुधारने का प्रयास भी ठीक से नहीं किया गया। नेहरु की कश्मीर के प्रति रुचि और धर्म निरपेक्षता की छवि को पूरे विश्व में स्थापित करने की ज़िद की वजह से भी हालात बिगड़ते चले गए ।
नेहरु इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि हिंदुस्तान कभी धर्म निरपेक्षता का परित्याग कर सकता है, उनको विश्वास था कि कश्मीर का दर्जा जो हो, धर्म निरपेक्षता तो बरक़रार रहेगी ही। इसलिए उन्होंने कश्मीर की नियति को भारतीय मुसलमान की नियति से जोड़ने से इंकार कर दिया। उनके लिए धर्म निरपेक्षता एक धर्म था, वह सौदेबाज़ी की दुकान नहीं थी। इसलिए उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि भारत धर्म निरपेक्ष बना रहेगा , कश्मीर उसके साथ बना रहे या नही , मुसलमान नागरिकों के साथ हिंदुओ के समकक्ष , समानता का व्यवहार किया जाएगा। और संविधान ने इसकी ज़मानत दी है।
( डॉक्टर रफ़ीक जकरिया की किताब - बढ़ती दूरियाँ-गहराती दरार पृष्ठ -267)
उस दौर की एक बड़ी चूक यह भी रही कि भारत और कश्मीर के मुसलमानो को क़रीब लाने का प्रयास किसी ने नहीं किया। और इसके लिए सभी राजनैतिक दल ज़िम्मेदार हैं। भारत दुनिया भर में नये-नये मुक़ाम हासिल कर रहा था , लेकिन कश्मीर के दुखद हालात पर ध्यान ही नहीं दिया गया। जबकि भारत और कश्मीर के जुड़ाव के लिए इस्लाम एक सुदृढ़ सम्बंध-सूत्र हो सकते थे। जबकि दोनो क़रीब आते तो हालात इस हद तक नहीं बिगड़ते कि सियासी फ़ायदे का ज़रिया बन जाये। उलटा कश्मीर के हालात को लेकर सियासतदारो ने शेष भारत के मुसलमानो को निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश की । शेष भारत के मुसलमानो की हालात इससे समझ सकते हैं कि पाकिस्तान तो उन्हें लानत भेजता ही है , आम हिंदुस्तानी भी उन्हें शक की नज़र से देखने लगा।
पाकिस्तान का कश्मीर पर दावा सिर्फ़ बहुसंख्यक मुसलमानो की वजह से है , जबकि वह दो राष्ट्र के सिद्धांत पर पूरी तरह फ़ेल हो चुका है, और उसकी हालत बदतर हो चुकी है। आम पाकिस्तानियों का जीना कठिन हो गया है। सेना का प्रभाव बहुत ज़्यादा होने से हालात तानाशाही राजजैसे है। लेकिन वह कश्मीर को लेकर अपनी हरकतों से बाज़ ही नहीं आ रहा।
कश्मीर के ये हालात नहीं होते तो धारा 370 और 35 ए को लेकर इतना बवाल ही नहि होता। कश्मीर के हालात के लिए पाकिस्तान के अलावा धारा 370 और 35 ए को भी ज़िम्मेदार माना जाता है और इसका दोष नेहरु को दिया जाता है। ये सच है कि उस मामले में नेहरु से रणनीतिक चूक हुई है लेकिन इसके लिए और भी तथ्य ज़िम्मेदार रहे हैं।
सरकारों से चूक होती है लेकिन उसे सिर्फ़ राजनैतिक फ़ायदे के फेर में अपराध की संज्ञा देना दुष्टता ही मानी जाएगी ।
जबकि कश्मीर मामले का सबसे दुखद पहलू तो यह भी है कि कोई भी राजनैतिक पार्टी ने इस समस्या को सुलझाने की कोशिश ही नहीं की , उलटे इस समस्या के आड़ में राजनैतिक मक़सद को पूरा किया गया । और उन ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को हवा दी गई जिससे लोगों का ध्यान बुनियादी ज़रूरतों से भटक जाए ।
दरअसल धारा 370 और 35 ए को मुद्दा बनाने की असली वजह हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करना है जबकि कश्मीर समस्या का जड़ पाकिस्तान और वहाँ के लोगों का अविश्वास है।
यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अपने पार्टी के एजेंडे के तहत धारा 370 और 35 ए को जब हटाते हुए तमाम विरोधी दल के बड़े नेताओ अब्दुल्ला , महबूबामुफ़्ती सहित कई लोगों को हिरासत में लेते हुए कश्मीर राज्य को तीन हिस्सों में बाँटा, तब भी वहाँ शांति स्थापित कहाँ हो पाया ।
भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान द्वारा फैलाये जा रहे ज़हर से निपटने की बजाय कश्मीरियो पर अविश्वास या संदेह का जो बीज बोया जा रहा है या बोया जाता रहा है वह भी वहाँ के हालात के लिए ज़िम्मेदार रहे हैं। जबकि यह सत्य है कि उग्रवाद से कश्मीरियो की समस्या का हल नहीं होने वाला है क्योंकि उग्रवाद से नुक़सान कश्मीर का ही हुआ है ।
अब भी राजनैतिक पार्टियाँ यदि सियासत करने की बजाय ईमानदारी से कश्मीर समस्या का हल करना चाहते हैं तो उन्हें कश्मीरी और शेष भारतीय मुसलमानो के बीच संबंधो को बढ़ाने की दिशा में ठोस क़दम उठाने चाहिए ।
कश्मीर समस्या का एक और मुद्दा कश्मीरी पंडित भी है । कश्मीरी पंडित डोगरा शासन (1846-1947) के दौरान घाटी की जनसंख्या के कृपा-प्राप्त अंग थे। उनमें से 20 प्रतिशत ने 1950 के भूमि सुधारों के परिणामस्वरूप घाटी छोड़ दी,और 1981 तक पंडित आबादी का कुल 5 प्रतिशत रह गए।1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के दौरान कट्टरपंथी इस्लामवादियों और आतंकवादियों द्वारा उत्पीड़न और धमकियों के बाद वे अधिक संख्या में जाने लगे। 19 जनवरी 1990 की घटनाएँ विशेष रूप से शातिराना थीं। उस दिन, मस्जिदों ने घोषणाएँ कीं कि कश्मीरी पंडित काफ़िर हैं और पुरुषों को या तो कश्मीर छोड़ना होगा, इस्लाम में परिवर्तित होना होगा या उन्हें मार दिया जाएगा। जिन लोगों ने इनमें से पहले विकल्प को चुना, उन्हें कहा गया कि वे अपनी महिलाओं को पीछे छोड़ जाएँ। कश्मीरी मुसलमानों को पंडित घरों की पहचान करने का निर्देश दिया गया ताकि धर्मांतरण या हत्या के लिए उनको विधिवत निशाना बनाया जा सके।कई लेखकों के अनुसार, 1990 के दशक के दौरान 140,000 की कुल कश्मीरी पंडित आबादी में से लगभग 100,000 ने घाटी छोड़ दी।अन्य लेखकों ने पलायन का और भी ऊँचा आँकड़ा सुझाया है जो कि 150,000 से लेकर 190,000 (लगभग 200,000 की कुल पंडित आबादी का) तक हो सकता है। तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन की एक गुपचुप पलायन संघटित करने में संलिप्तता विवाद का विषय रही जिससे योजनाबद्ध पलायन की प्रकृति विवादास्पद बनी हुई है।कई शरणार्थी कश्मीरी पंडित जम्मू के शरणार्थी शिविरों में अपमानजनक परिस्थितियों में रह रहे हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि 1990 में जब कश्मीरी पंडितो को बड़ी संख्या में प्रताड़ित किया गया तब केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी और भाजपा उसकी सहयोगी थी लेकिन सियासी फ़ायदे के लिए जो प्रचार किया गया उससे यही कहा गया कि इसके लिए कांग्रेस ही दोषी है ।
कुल मिलाकर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए कश्मीर समस्या को बेवजह हवा दी गई जिससे देश में नफ़रत का वातावरण बनाया गया।
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