सियासी-फ़सल -८

महात्मा गांधी हर हाल में बँटवारा रोकना चाहते थे और हिंदू मुसलमानो के बीच तनाव फैलाने वालों को रोकते रहे। हरिजन के 6 अप्रेल 1940 के अंक में उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से हिंदू - मुस्लिम एकता को रेखांकित किया-
महात्मा गांधी हर हाल में बँटवारा रोकना चाहते थे और हिंदू मुसलमानो के बीच तनाव फैलाने वालों को रोकते रहे। हरिजन के 6 अप्रेल 1940 के अंक में उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से हिंदू - मुस्लिम एकता को रेखांकित किया-
भारत के बहुसंख्यक मुसलमान या तो इस्लाम में धर्मान्तरित हैं या धर्मान्तरित व्यक्तियों के वंशज हैं। ज्योंही वे धर्मान्तरित हुए वे एक अलग मुल्क नहीं बन गए। एक बंगाली मुसलमान वही ज़ुबान बोलता है, वही खाना खाता है और अपने हिंदू पड़ोसियों की तरह ख़ुशियाँ मनाता है । उनका पहनावा भी एक सा है । मुझे अक्सर बाहरी तौर पर बंगाली हिंदू और बंगाली मुसलमान में फ़र्क़ करने में मुश्किल पड़ी है। कमोबेश वही नज़ारा दक्षिण के ग़रीब तपको में भी दिखता है, और भारत की बहुसंख्यक जनता ग़रीब ही है। जब पहली बार मैं मरहूम सर अली इमाम से मिला था तब मुझे नहीं मालूम था कि वे हिंदू नहीं हैं। उनकी बोलचाल, उनका पहनावा, उनका रहन सहन, उनका ख़ानपान बिलकुल उन लोगों जैसा ही था , जिनके बीच मैंने उन्हें पाया था। सिर्फ़ उनके नाम से पता चल पाता था कि वे मुसलमान हैं। यही बात क़ायदे आज़म जिन्ना के साथ भी थी क्योंकि उनका नाम तो किसी हिंदू का भी हो सकता था। जब पहली बार मैं उनसे मिला तो मुझे नहीं मालूम  था कि वे मुस्लिम हैं। मुझे उनके मज़हब का पता तब चला जब उनका पूरा नाम बताया गया।उनकी राष्ट्रीयता तो उनके चेहरे और तौर-तरीक़ों से स्पष्ट थी। पाठकों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि अगर महीनो नहीं तो कई दिनो तक मैं स्वर्गीय विट्ठल भाई पटेल को मुसलमान मानता रहा क्योंकि वे दाढ़ी रखते थे और तुर्की टोपी पहनते थे। उत्तराधिकार का हिंदू क़ानून कई मुसलमान समुदाय पर लागू होता है। सर मुहम्मद इक़बाल अपने ब्राह्मणीय वंश परम्परा का  गर्व से उल्लेख करते थे। इक़बाल और किचलू नाम हिंदुओ और मुसलमानो में सामान्य हैं। हिंदुस्तान के हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र नहीं हैं। जिन्हें भगवान ने बनाया ,  उन्हें इंसान कभी बाँट नहीं सकता।
लेकिन तमाम उपाय धरे के धरे रह गए और अंगरेजो की साज़िश में कट्टर हिंदू- मुसलमानो ने फँसकर बँटवारे को अंजाम दे दिया। कहते हैं कि अंगरेजो ने इस पूरे घटनाक्रम से स्वयं को यह कहते अलग कर लिया कि यह हिंदू-मुसलमान का झगड़ा है और अब बँटवारा होगा ही। जबकि महात्मा गांधी आख़िरी दम तक बँटवारा रुकवाने लगे रहे। महात्मा गांधी ने कहा कि उनकी लाश पर बँटवारा होगा लेकिन तब तक सब कुछ ख़त्म हो चुका था ।
मौलाना आज़ाद और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे और उन्होंने इसके ख़िलाफ़ पुरज़ोर तरीक़े से आवाज़ उठाई थी, लेकिन उनके अलावा इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफ़िज़-उर-रहमान, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी जैसे कई और लोग थे जिन्होंने बहुत सक्रियता के साथ मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति का विरोध किया था.
जिन्ना ने कांग्रेस पर आरोप लगाया तो कांग्रेस ने जिन्ना को ज़िम्मेदार ठहराया । इसका अर्थ हिंदुस्तान में यह निकाला गया कि मुसलमानो ने ही बँटवारा कराया जबकि हक़ीक़त में बँटवारे के लिए कट्टर मुसलमान और कट्टर हिंदुओ के अलावा अंग्रेज़ भी बराबर के ज़िम्मेदार थे । यह सब इतनी चतुराई से खेला गया कि कोई समझ ही नहीं पाया। और अंगरेजो के षड्यंत्र में फँसते चले गए।
कुल मिलाकर यह एक बदकिस्मती घटना हुई जो इतिहास को नया मोड़ दिया । इस बँटवारे पर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने अपने एक किताब- द गिल्टी मेन आफ पाकिस्तान में कांग्रेस पर बँटवारे की ज़िम्मेदारी डालते हुए कहा है कि ये सब इतने थके हुए थे कि अब और किसी प्रकार के संकट का सामना करने में असमर्थ थे और ब्रिटिशो से पिंड छुड़ाने और सत्ता हासिल करने के लिए उतवाले हो उठे थे । जबकि मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश ने तो कभी अलग होना ही नहीं चाहा।
बँटवारा होते ही जिस तरह का ख़ून-ख़राबा हुआ वह भी कट्टर पंथियों का चरम था। दोनो तरफ़ से लाशें भेजी जा रही थी। इस पर महात्मा गांधी के अनशन की घोषणा के बाद मार-काट बंद हुआ लेकिन जो हिंदू अपना सब कुछ खोकर लौटे उनकी पीड़ा सुनकर मुसलमानो के प्रति ग़ुस्सा भरता चला गया।
बँटवारे का दुष्परिणाम हिंदू- मुस्लिम सभी ने भुगता। दोनो ही तरफ़ के लोगों को आज तक अफ़सोस है, मौलाना आज़ाद ने मायूस हो चुके मुसलमानो को 23 अक्टूबर 1947 को जामा मस्जिद के प्राचीर से रुँधे गले से कहा- हिंदुस्तान का बँटवारा एक बुनियादी भूल थी। जिस तरीक़े से मज़हबी फ़र्क़ को उभारा गया और भड़काया गया उससे अपरिहार्य तौर पर यह विनाश लीला होनी ही थी जिसे हमने अपनी आँखो से देखा। पिछले सात साल की घटनाओं को गिनाने का कोई फ़ायदा नहीं, और न ही उससे कुछ भला होने वाला है। फिर भी यह कहना ही पड़ेगा कि हिंदुस्तानी मुसलमानो की तबाही , मुस्लिम लीग के दिग्भ्रमित करने वाले नेतृत्व के द्वारा की गई, भूलों का नतीजा है ।
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के पूर्व सहयोगी सुधींद्र कुलकर्णी ने कहा-
ये सही है कि आज़ादी की लड़ाई में जिन्ना एक भी दिन जेल नहीं गए, लेकिन ऐसे तो बीआर आंबेडकर भी एक भी दिन जेल नहीं गए, लेकिन क्या उनका योगदान कम है.

1908 में जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें बर्मा में छह साल की काला पानी की सज़ा हुई तो तिलक का मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने ही लड़ा था.

लेकिन कट्टर पंथियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के षड्यंत्र का हिस्सा बन साझी विरासत को सत्यानाश कर दिया । अंगरेजो ने यह सब इसलिए किया क्योंकि संयुक्त भारत की ताक़त को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे ।से स्पष्ट थी। पाठकों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि अगर महीनो नहीं तो कई दिनो तक मैं स्वर्गीय विट्ठल भाई पटेल को मुसलमान मानता रहा क्योंकि वे दाढ़ी रखते थे और तुर्की टोपी पहनते थे। उत्तराधिकार का हिंदू क़ानून कई मुसलमान समुदाय पर लागू होता है। सर मुहम्मद इक़बाल अपने ब्राह्मणीय वंश परम्परा का  गर्व से उल्लेख करते थे। इक़बाल और किचलू नाम हिंदुओ और मुसलमानो में सामान्य हैं। हिंदुस्तान के हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र नहीं हैं। जिन्हें भगवान ने बनाया ,  उन्हें इंसान कभी बाँट नहीं सकता।
लेकिन तमाम उपाय धरे के धरे रह गए और अंगरेजो की साज़िश में कट्टर हिंदू- मुसलमानो ने फँसकर बँटवारे को अंजाम दे दिया। कहते हैं कि अंगरेजो ने इस पूरे घटनाक्रम से स्वयं को यह कहते अलग कर लिया कि यह हिंदू-मुसलमान का झगड़ा है और अब बँटवारा होगा ही। जबकि महात्मा गांधी आख़िरी दम तक बँटवारा रुकवाने लगे रहे। महात्मा गांधी ने कहा कि उनकी लाश पर बँटवारा होगा लेकिन तब तक सब कुछ ख़त्म हो चुका था ।
मौलाना आज़ाद और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे और उन्होंने इसके ख़िलाफ़ पुरज़ोर तरीक़े से आवाज़ उठाई थी, लेकिन उनके अलावा इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफ़िज़-उर-रहमान, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी जैसे कई और लोग थे जिन्होंने बहुत सक्रियता के साथ मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति का विरोध किया था.
जिन्ना ने कांग्रेस पर आरोप लगाया तो कांग्रेस ने जिन्ना को ज़िम्मेदार ठहराया । इसका अर्थ हिंदुस्तान में यह निकाला गया कि मुसलमानो ने ही बँटवारा कराया जबकि हक़ीक़त में बँटवारे के लिए कट्टर मुसलमान और कट्टर हिंदुओ के अलावा अंग्रेज़ भी बराबर के ज़िम्मेदार थे । यह सब इतनी चतुराई से खेला गया कि कोई समझ ही नहीं पाया। और अंगरेजो के षड्यंत्र में फँसते चले गए।
कुल मिलाकर यह एक बदकिस्मती घटना हुई जो इतिहास को नया मोड़ दिया । इस बँटवारे पर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने अपने एक किताब- द गिल्टी मेन आफ पाकिस्तान में कांग्रेस पर बँटवारे की ज़िम्मेदारी डालते हुए कहा है कि ये सब इतने थके हुए थे कि अब और किसी प्रकार के संकट का सामना करने में असमर्थ थे और ब्रिटिशो से पिंड छुड़ाने और सत्ता हासिल करने के लिए उतवाले हो उठे थे । जबकि मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश ने तो कभी अलग होना ही नहीं चाहा।
बँटवारा होते ही जिस तरह का ख़ून-ख़राबा हुआ वह भी कट्टर पंथियों का चरम था। दोनो तरफ़ से लाशें भेजी जा रही थी। इस पर महात्मा गांधी के अनशन की घोषणा के बाद मार-काट बंद हुआ लेकिन जो हिंदू अपना सब कुछ खोकर लौटे उनकी पीड़ा सुनकर मुसलमानो के प्रति ग़ुस्सा भरता चला गया।
बँटवारे का दुष्परिणाम हिंदू- मुस्लिम सभी ने भुगता। दोनो ही तरफ़ के लोगों को आज तक अफ़सोस है, मौलाना आज़ाद ने मायूस हो चुके मुसलमानो को 23 अक्टूबर 1947 को जामा मस्जिद के प्राचीर से रुँधे गले से कहा- हिंदुस्तान का बँटवारा एक बुनियादी भूल थी। जिस तरीक़े से मज़हबी फ़र्क़ को उभारा गया और भड़काया गया उससे अपरिहार्य तौर पर यह विनाश लीला होनी ही थी जिसे हमने अपनी आँखो से देखा। पिछले सात साल की घटनाओं को गिनाने का कोई फ़ायदा नहीं, और न ही उससे कुछ भला होने वाला है। फिर भी यह कहना ही पड़ेगा कि हिंदुस्तानी मुसलमानो की तबाही , मुस्लिम लीग के दिग्भ्रमित करने वाले नेतृत्व के द्वारा की गई, भूलों का नतीजा है ।
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के पूर्व सहयोगी सुधींद्र कुलकर्णी ने कहा-
ये सही है कि आज़ादी की लड़ाई में जिन्ना एक भी दिन जेल नहीं गए, लेकिन ऐसे तो बीआर आंबेडकर भी एक भी दिन जेल नहीं गए, लेकिन क्या उनका योगदान कम है.

1908 में जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें बर्मा में छह साल की काला पानी की सज़ा हुई तो तिलक का मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने ही लड़ा था.

लेकिन कट्टर पंथियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के षड्यंत्र का हिस्सा बन साझी विरासत को सत्यानाश कर दिया । अंगरेजो ने यह सब इसलिए किया क्योंकि संयुक्त भारत की ताक़त को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे ।

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