सियासी-फ़सल -७

विभाजन
सभी को अपने में समाहित कर लेने वाले हिंदुत्व का ही प्रभाव था कि जो भी इस धरती पर क़दम रखता वह यहीं का हो जाता। अनेकता में एकता की पहचान लिए इस देश में जब अंग्रेज़ आए तो उनके अत्याचार का हिंदू-मुस्लिम दोनो ने एकजुटता से मुक़ाबला किया। 1857  की क्रांति ने तो अंग्रेज़ी राज को भीतर तक हिला दिया। क्रांति असफल ज़रूर हो गई थी लेकिन आज़ादी का बिगुल बज ही चुका था।
ऐसे में अंगरेजो ने हिंदू और मुस्लिम दोनो ही धर्मों के ऐसे लोगों पर डोरे डालना शुरू किया जो अपने-अपने धर्म को लेकर न केवल कट्टर हो, बल्कि दूसरे धर्म की आलोचना भी करे। ऐसे लोगों को अंग्रेज़ी राज में पद और सुविधाएँ दी जाने लगी और यह भ्रम फैलाया जाने लगा कि यदि भारत आज़ाद हुआ तो मुसलमान अल्पसंख्यकों का हिंदू जीना दूभर कर देंगे। ईसाई मिशनरियाँ ग़रीबों का धर्मान्तरण कराने के साथ-साथ यह भ्रम फैलाने में सफल होने लगे थे कि मुसलमान को अपने पुराने वैभव पाने में सबसे बड़ा रोड़ा हिंदू ही हैं। दूसरी तरफ़ अंगरजो की नीति फूट डालो- राज करो की हो गई थी। अंगरेजो को डर था कि कहीं हिंदू-मुस्लिम एकता क़ायम रही तो उनका राज करना मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए जब प्रांतीय चुनाव कराने का निर्णय लिया गया तो मुसलमानो को अलग से प्रतिनिधित्व देने की माँग उठा दी, यही नहीं बंगाल के मुस्लिम बाहुल्य इलाक़े को 16 जुलाई 1905 को अलग प्रान्त बना दिया गया। लार्ड कर्ज़न के इस निर्णय का जब कांग्रेस और कई मुस्लिम नेताओ ने विरोध करते हुए बंग-भंग आंदोलन छेड़ा तो प्रांत विभाजन का निर्णय वापस ले लिया गया। लेकिन अंग्रेज़ अपनी यह हार भूल नहि पा रहे थे , ख़ासकर कर्ज़न ने साम्प्रदायिक ताक़तो और कट्टर पंथियों को पुचकारना जारी रखा।
दरअसल देश विभाजन की नीव तो अंगरेजो ने सांप्रदायिक ताक़तों के इशारे पर पहले ही रख दी थी , इसके लिए अंग्रेजों ने एक ऐसे मुसलमानो को चुना जो कांग्रेस के राष्ट्रवादी नारे के ख़िलाफ़ बोले । कहा जाता है कि सर सैयद अहमद खान जिनकी मुसलमान बिरादरी में बेहद इज़्ज़त थी ने अंगरेजो के इशारे पर सबसे पहले मुसलमानो के अस्तित्व का सवाल उठाते हुए कहा कि अंगरेजो के ख़िलाफ़ जिस राष्ट्रवादिता के नारों के साथ मुसलमान ज़ोर शोर से हिस्सा ले रहे हैं वे मुसलमान अपने भविष्य को ख़तरे में डाल रहे हैं, क्योंकि यदि हम मान लें कि हमारे यहाँ अमेरिका की तरह मताधिकार लागू हो जाये और हिंदू उम्मीदवार को हिंदू और मुसलमान उम्मीदवार को मुसलमान वोट देने लग जाये तो यह पक्की बात है कि हिंदू उम्मीदवार को चार गुना वोट मिलेंगे। तब फिर मुसलमान अपने हितो की हिफ़ाज़त कैसे कर पाएगा। सैयद अहमद खान ने यह बात कांग्रेस अधिवेशन में रहते हुए छेत्रवाद प्रतिनिधित्व देने भी बात कही।
कहा जाता है कि इसके बाद मुसलमानो को भड़काया गया और इस खेल में अंग्रेज़ सफल हो गए। आज़ादी की लड़ाई की बजाय यह नई लड़ाई शुरू हो गई। इसका फ़ायदा उठाते हुए मुसलमानो को अपने पक्ष में करने ही लार्ड कर्ज़न ने 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया। लेकिन कांग्रेस ने जब बंग-भंग के ख़िलाफ़ आंदोलन का बिगुल फूँक दिया तब अंगरेजो को मुँह की खानी पड़ी । लेकिन अंग्रेज़ी राज फूट डालो नीति के तहत मुसलमानो से ऐसी-ऐसी माँग उठवाती थी जिससे वह यह प्रचारित कर सके कि हिंदुओ के दबाव में उन्हें मुसलमानो की उपेक्षा करनी पड़ रही है।
इसका दुष्परिणाम सामने आने लगा था, उधर मुस्लिम लीग बन गया तो इधर हिंदू महासभा भी बन गया। सर सैयद इक़बाल ने 1930 के मुस्लिम लीग के सम्मेलन में धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने की माँग कर दी। प्रस्ताव में पंजाब, पश्चिमत्तर सीमांत प्रदेश , सिंध और बलूचिस्तान को एकीकृत राष्ट्र बनाने की बात कही गई।
1906 में मुस्लिम लीग बनी तो जिन्ना ने शरीक होने से न केवल मना किया था बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता के तहत कांग्रेस से समझौता कराने का प्रयास भी किया। जिन्ना स्वयं को गांधी के समकक्ष समझते थे और गोलमेज़ सम्मेलन के बाद वे इतने नाराज़ हुए कि जाकर लंदन में बस गए।
इधर लगातार हिंदू मुस्लिम तनाव भी बढ़ रहा था और इसी बीच 1932 में सावरकर ने टू नेशन थ्योरी नाम की एक किताब लिखकर हिंदू महासभा की मंशा भी स्पष्ट कर दी कि वे भी मुसलमानो के साथ रहना नहीं चाहते।
इधर नेहरु ताक़तवर होने लगे थे और अंगरेजो को कांग्रेस का कहना मानना पड़ रहा था । ऐसे में जिन्ना ने यह कहते हुए भारत वापसी कर ली कि-
मैं इतना निराश और मायूस था कि मैंने लंदन जाकर बसने का फ़ैसला कर लिया। ऐसा नहीं था कि मुझे हिंदुस्तान से मुहब्बत नहीं थी। लेकिन मैं अपने को सरासर लाचार पा रहा था । मैंने हिंदुस्तान से सम्पर्क बनाए रखा। चार साल बाद मैंने पाया कि मुसलमान बहुत बड़े ख़तरे में है। मैंने हिंदुस्तान लौटने का मन बना लिया क्योंकि लंदन में रहकर मैं कोई हित नहीं साध सकता था इसलिए मेरी औक़ात एक भिखमंगे की सी थी और मेरा साथ वही सलूक किया गया जो किसी भिखमंगे के साथ किया जाता है । ( वही , पृष्ठ 123)
जिन्ना का मुस्लिम लीग के साथ आना साम्प्रदायिक ताक़तों की जीत के रूप में देखा गया और तभी से लगने लगा था कि कट्टर हिंदू और कट्टर मुसलमान अब रुकने वाले नहीं है।
कांग्रेस इस ख़तरे को भाँप चुकी थी और अंगरेजो के इस करतूत पर वह लगातार प्रहार भी कर रही थी । कांग्रेस के भीतर भी इस मुद्दे पर बहस होने लगी तो महात्मा गांधी ने दो राष्ट्र के सिद्धांत को ही नकार दिया। सिर्फ़ महात्मा गांधी ही नहीं उस दौर के कई दिग्गज नेताओ ने धर्म के आधार पर राष्ट्र को सिरे से ख़ारिज कर दिया।
1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में भाषण देते हुए मौलाना आज़ाद ने समझाने की कोशिश की कि कैसे हिंदू और मुसलमान एक राष्ट्र बन सकते हैं-
ग्यारह सौ वर्षों के हमारे मिले-जुले इतिहास ने भारत को हमारी मिली जुली उपलब्धियों से समृद्ध बनाया है। हमारी भाषाएँ, हमारी कविता, हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति, हमारी कला, हमारा पहनावा, हमारे तौर-तरीक़े और रीति-रिवाज , हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की अनगिनत घटनाएँ - सब कुछ पर हमारे संयुक्त प्रयासों की छाप है । हमारी ज़िंदगी का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिस पर यह छाप पड़ने से रह गई हो । हमारी भाषाएँ अलग-अलग थी लेकिन हम विकसित होकर एक सामान्य भाषा का इस्तेमाल करने लग गए, हमारे तौर तरीक़े और रीति रिवाज एक से नहीं थे , लेकिन उनकी एक दूसरे पर क्रिया और प्रतिक्रिया होती गई और इस प्रकार का एक नया संश्लेन्षण पैदा हुआ। हमारे पहनावे अब बीते दिनो की प्राचीन तस्वीरों में ही देखे जा सकते हैं, उन्हें आज कोई नहीं पहनता। एक संयुक्त सम्पदा , हमारी सामान्य राष्ट्रीयता की विरासत है और हम उसे गँवाना नहीं चाहते, और उस वक़्त की ओर लौट कर जाना नहीं चाहते जब यह संयुक्त जीवन शुरू नहीं हुआ था। हमारे संयुक्त जीवन के इन हज़ार वर्षों  ने हमें एक सामान्य राष्ट्रीयता में ढाल दिया है । बनावटी प्रक्रिया  में ऐसे काम सम्पन्न नहीं होते। प्रकृति, सदियों के दौरान, अपनी दबी-छिपी प्रक्रियाओं के ज़रिए अपने ढंग से रचा करती है। इस एकता को खण्डित करने और तोड़ने के मक़सद से की गई काल्पनिक उड़ाने या नक़ली योजनाएँ कारगर नहीं हो सकती। हमें तथ्यों की तर्क संगति और इतिहास  को पक्के तौर पर क़बूल कर लेना चाहिए और भावी नियति को ढालने रचने में ख़ुद को लगा देना चाहिए।
जिन्ना के मुक़ाबले कांग्रेस ने मौलाना आज़ाद को खड़ा कर दिया तो जिन्ना और भड़क गए। वे सभी को पत्र लिखकर अलग राष्ट्र की माँग को पुरज़ोर से उठाने लगे। यहाँ तक कि जिन्ना ने वाइसराय से लेकर गांधी तक को पत्र लिखा और यह समझाने की कोशिश की कि हिंदू और मुसलमान दो अलग अलग धार्मिक दर्शन , रीति रिवाज से जुड़े हैं इनका न आपस में शादी होता है न खान पान ही एक हैं। एक का नायक दूसरे का खलनायक है। इन्हें एक साथ जोड़ने से असंतोष बढ़ता चला जाएगा। और यह एक राष्ट्र की संरचना ध्वस्त हो जाएगी।
जबकि इसके पहले जब जिन्ना मुस्लिम लीग से नहीं जुड़े थे तो कहा करते थे । यदि हिंदू मुस्लिम के महानायक अलग अलग हैं तो गुजराती, पंजाबी, महाराष्ट्रियन, बंगाली के महानायक भी तो अलग हैं । दक्षिण के राज्यों के महानायक तो बिलकुल भी अलग है, भाषा से लेकर शादी ब्याह सब भिन्न है, उसके बाद भी सामान्य सम्बंध सूत्र हैं , वही हिंदू मुसलमानो के बीच भी है। लेकिन गांधी के समकक्ष मानने के अहंकार ने जिन्ना को इतना विचलित कर दिया कि उन्हें सिर्फ़ सत्ता ही दिखाई देने लगा , ऊपर से हिंदू महासभा के नेताओ का रवैया आग में घी का काम किया तो अंगरेजो की साज़िश ने इसे पूरा करने में मदद की।

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