सियासी-फ़सल -४

हम यह मुस्लिम शासकों के बारे में ही यह सब इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि मौजूदा राजनीति में यह कहकर वैमनस्यता पैदा की जा रही है कि मुस्लिम शासकों ने हिंदुओ पर ख़ूब अत्याचार किये। ऐसा नहीं है कि इस दौरान  आम हिंदू और मुसलमानो के बीच विद्वेष की भावना भड़काने की कोशिश नहीं की गई। लेकिन हिंदू संत और मुस्लिम सूफ़ियों के प्रभाव ने दोनो ही धर्मों के लोगों की न केवल ग़लतफ़हमियों को दूर की बल्कि सामंजस्य भी बिठाया। आम जनो का आपस में लड़ाई- झगड़ा भी होता था लेकिन धार्मिक विवाद जैसी बात कम ही होती थी।
वास्तव में सन 711 से 1526 तक का युग तानाशाही, राज करने की लालसा में झूठ प्रपंच षड्यंत्र का काल था। कभी कोई हिंदू राजा मुस्लिम शासक से मिलकर षड्यंत्र करता तो कभी कोई मुस्लिम शासक सत्ता हासिल करने या ईर्ष्या वश हिंदू राजा के साथ मिलकर षड्यंत्र करता। जिसकी वजह से कई राज में अशांति और अराजक का माहौल भी बन जाता था।
इब्राहिम लोधी को हराकर बाबर इतना उत्साहित हुआ कि उसने अपने को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया। बाबर बहादुर फ़ौजी ज़रूर था लेकिन प्रशासक के मामले में वह ठीक नहीं था। लेकिन उसे हिंदुस्तान में कामयाबी से हुकूमत चलाने का नुस्ख़ा आ गया था। इसलिए उसने अपने बेटे हुमायूँ से कहा था कि मुसलमानो और हिंदुओ में भेदभाव नहीं करोगे तो तुम्हारी सल्तनत क़ायम रहेगी। लेकिन उसके एक सिपहसलार मीर बाँकी ने अयोध्या में स्थित प्रभु राम जी का मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद बनवा दी । जो बाद में बाबरी मस्जिद कहलाई। और यही आज़ाद भारत में सत्ता परिवर्तन का मुद्दा भी बना।
हुमायूँ (1508-1556) ने पिता की सिख पर प्रशासन करने लगा लेकिन हिंदुओ के प्रति विद्वेष रखने वाले उलेमाओ ने हुमायूँ के इस बर्ताव से नाराज़ होकर साज़िश रची और हुमायूँ के ही सिपहसलार शेर शाह सूरी (1540-1545) को गद्दी पर बिठा दिया। हुमायूँ को देश छोड़कर भागना पड़ा। फिर वह ईरान के शाह ताहमस्य की फ़ौजी मदद लेकर पुनः सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद हुमायूँ का बेटा अकबर (1556-1605) ने शासन किया तेरह साल के अकबर को सिंहासन में बिठाया गया क्योंकि हुमायूँ सीढ़ी से गिरकर जब मरे तो उसके क़रीबी दोस्त बैरम खान ने अकबर को संरक्षण दिया ।
अकबर ने मुग़ल साम्राज्य को बढ़ाने के लिए सभी तरह के खेल खेले। 
अकबर ने हिंदू मुस्लिम एकता को स्थापित और स्थायी बनाए रखने की जो कोशिश की उसकी कई इतिहासकारों ने विस्तृत चर्चा की है। हिंदुओ के प्रति उदारता और धर्म निरपेक्ष छवि के चलते अकबर ने धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ भी कड़े क़दम उठाए जिसके चलते न केवल पंडितो ने बल्कि उलेमाओ ने भी कई बार अकबर का कड़ा विरोध किया। अकबर ने इस विषम परिस्थितियों को भी आसानी से हल किया। अलग-अलग धर्मों की विचार गोष्ठियाँ बुलाई जाती और ऐसे मुद्दे उठाए जाते कि उलेमा या पंडित एक दूसरों को आपस में ही नीचा दिखाने में लग जाते।
यहाँ तक कि हर कोई अपने धर्म को श्रेष्ठ कहता। इसलिए अकबर ने दिन-ए-ईलाही धर्म की स्थापना की जिसमें सभी धर्म के लोगों को शामिल करने का प्रयास हुआ। हालाँकि इसका हिंदुओ ने भी विरोध किया। दरअसल यह दिन-ए-ईलाही धर्म की स्थापना ही उलेमाओ और पंडितो की श्रेष्ठता की लड़ाई को शांत करने की कोशिश थी जबकि अकबर ने कभी मुस्लिम धर्म नहीं छोड़ा। अकबर ने उलेमाओ पर दबाव बनाने के लिए फ़तवा तक जारी किया कि धार्मिक मामलों में बादशाह की घोषणा ही सर्वोपरि है । दरअसल दिन-ए-ईलाही अकबर की राजनीति का हिस्सा मात्र था।
ऐसा नहीं है कि अकबर के इस रवैये से धार्मिक उन्माद बढ़ाने की कोशिश नहीं की गई लेकिन अकबर ताक़तवर था, उसने ऐसे किसी भी प्रयास को आसानी से कुचल दिया।
अकबर को मालूम था कि हिंदुस्तान में लम्बे समय तक राज करना है तो हिंदू- मुस्लिम एकता और मेलजोल को बरक़रार रखना होगा इसलिए उसने राजपूत जोधाबाई से शादी कर उसे हिंदू रीति-रिवाज को अंतहपुर में भी जारी रखने दिया। तो मानसिंह को साम्राज्य का विस्तार और टोदरमल को वित्तीय व्यवस्था के लिए रखा। उसने दरबार और राज के संचालन के लिए नौ रत्न रखे थे।
अकबर और महाराणा प्रताप को लेकर यह सवाल अक्सर उठाए जाते हैं कि दोनो को महान क्यों कहा जाता है? हैरानी की बात तो यह है कि महाराणा प्रताप के साथ हल्दी घाटी के निर्णायक युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह कर रहे थे तो महाराणा प्रताप की फ़ौज का नेतृत्व मुस्लिम हकीम खान सूरी कर रहा था। 
अकबर के बाद उनका बेटा जहांगीर खान गद्दी पर बैठा । उसने प्रजा को न्याय देने के ध्येय से न्याय की घंटी बँधवाया। लेकिन वह इस्लाम का पाबंद था । वह भी अकबर की तरह विभिन्न धर्मलंबियो का दरबार लगाता था। लेकिन दोनो तरफ़ के कट्टरपंथियो के बीच होने वाले टकराहट को नज़रअन्दाज़ करता रहा, यहाँ तक कि जहांगीर के कई प्रजा विरोधी नीति भी सामने आई, जिसकी वजह से सिखों के पाँचवे गुरु अर्जुनदेव (1563-1606) के बीच टकराहट पड़ी और अपने बादशाही के घमंड पर न केवल गुरु अर्जुनदेव को लाहौर जेल में प्रताड़ित कर मरवा दिया बल्कि इसकी वजह से आक्रोशित लोगों को भी बड़े पैमाने पर प्रताड़ित भी करवाया । चूँकि शाहजहाँ , नूरजहाँ से प्यार में दीवाना था इसलिए उसके दरबार में ससुराली ईरानियों का दबदबा था। जहांगीर के बाद शाहजहाँ ( 1628-1658) ने शासन किया वह कट्टर मुसलमान था हालाँकि उनका झुकाव सूफ़ी संतो के प्रति भी था। सच्चा मुसलमान साबित करने उसने स्वयं को मानवीय होने  का प्रयास किया। इस कार्यकाल में राजपूतों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाए गए । यहाँ तक की शाही सचिवालयों में भी हिंदुओ की भर्ती की गई। यहीं नहीं उसने अपने एक बेटे दाराशिकोह को संस्कृत और वेदों का ज्ञान भी दिलवाया।
दाराशिकोह जब गद्दी पर बैठा तो उदारवादी और हिंदू प्रजा के प्रति नरमदिली कई उलेमाओ को रास नहीं आई। और इसी का फ़ायदा उठाकर उसके भाई औरंगज़ेब ने गद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस दौरान ख़ूब ख़ून ख़राबे भी हुए ।
औरंगज़ेब (1658-1707) के शासन काल में उलेमाओ का प्रभाव बढ़ने लगा। वह कट्टरवादी था इसलिए जानबूझकर हिंदू प्रजा को प्रताड़ित ही नहीं करता बल्कि बड़े पैमाने पर हत्या तक की गई। उसके शासन काल में बड़े पैमाने पर हिंदू धार्मिक स्थलों को भी निशाना बनाया गया । मंदिर और मूर्तियाँ तोड़े गए। यहाँ तक कि अब तक दरबारों में तैनात होने वाले हिंदुओ तक को हटा दिया गया।

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