सियासी-फ़सल -३

गौरी की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर उसका ही एक ग़ुलाम क़ुतुबउद्दीन ऐबक (1206-1216) ने क़ब्ज़ा कर लिया, यह बेहद कठोर , निर्मम शासक था। इसने दिल्ली अजमेर सहित कई जगहों में मस्जिद बनवाई । लेकिन उसके राज में भी हिंदू प्रजा को बेवजह प्रताड़ित करने की बात सामने नहीं आई, हाँ उसने अपने धर्म को प्रचारित करने के लिए अनेको उपाय किये।
इसके बाद ग़ुलाम अल्तमश (1211-1236) गद्दी पर बैठा , यह भी तुर्कीस्तान का था। शुरुआत में तो उसे कई राज्यों में बग़ावत पर ही नियंत्रण करने में समय लग गया। बंगाल में अली मर्दान और सिंध के नसीरूद्दीन की बग़ावत के अलावा ग्वालियर और रणथम्मौर के दोनो राजाओं की बग़ावत को निपटने सख़्ती दिखाई । वह हिंदू प्रजाओं को हो रही तकलीफ़ के प्रति सचेत रहता, लेकिन उलेमाओ का लगातार दबाव रहता कि हिंदुओ को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाना चाहिये। अल्तमश ने अपने वज़ीर जूनयाही से कहा कि इस्लाम धर्मान्तरन के लिए शक्ति के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं देता। बावजूद कुछ स्थानो पर हिंदुओ के साथ अत्याचार की ख़बर आती तो अल्तमश कड़ाई से सज़ा देता।
इसके बाद उसकी बेटी रज़िया सुल्तान (1236-1240 ) ने सत्ता सम्भाली। रज़िया बेहद दूरदर्शी और उदार प्रवृति की थी। इसके समय में न्याय और ईमानदारी पर सभी को भरोसा था । कहा जाता है कि वह प्रजा से एक माँ की तरह प्यार करती थी लेकिन , यह बात कईयों को खल रही थी। और रज़िया सुल्तान की हत्या कर दी गई। हत्या के बाद बलबन ने किसी तरह सिंहासन संभाला। वह (1266-1287) सामंतों और उलेमाओ को शक्ति से कुचला । यही नहीं उसे अपनी शक्ति पर कुछ ज़्यादा ही विश्वास था और वह स्वयं को ज़िल्ले इलाही मानकर आदेश देता था । इतिहासकार इकराम की किताब - मुस्लिम सिविलाईजेशन  इन इंडिया के पृष्ठ 102 में बलबन पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि-बलबन को खुदा का डर नहीं था, उसके लिए सिर्फ़ अपना स्वार्थ ही महत्वपूर्ण था, फिर वह चाहे शरीयत के अनुकूल हो या न हो ।
बलबन के दौर में सभी के साथ अत्याचार हुए, वह इतना अहंकारी था कि वह किसी के प्रति भी सम्मान भाव नहीं रखता था।
इसके बाद के शासक जलालुद्दीन ख़िलजी (1290- 1296)  उसके बेटे अलाउद्दीन ख़िलजी (1296-1316) ने शासन किया इस दौरान तुर्की क़बिलाई हलाकू ने दिल्ली व उसके आसपास क़त्ले आम मचाते हुए तीस हज़ार लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
अलाउद्दीन ने अपने को पैग़म्बर घोषित कर ख़ुद का धर्म शुरू करने का निर्णय लिया। और शरीयत और उलेमाओ को साफ़ कह दिया कि मैं किसी नियम क़ानून को नहीं मानता, मैं अपनी सल्तनत चलाने जो सही समझूँगा वही करूँगा। यहाँ तक कि जिस हिजड़े से उलेमा नफ़रत करते थे, उस हिजड़े मलिक कफुर को ऊँचा पद देते हुए धर्मान्तरित हिंदू माँ के बेटे अमीर खुसरो (1253-2325) को राजकवि नियुक्त कर दिया।
इसके बाद मुहम्मद तुग़लक़ (1325-1351) ने गद्दी सम्भाली , जिसे इतिहास में सनकी शासक के रूप में जाना जाता है। वह ख़लीफ़ा बनने की महत्वकाँक्षा लेकर दिल्ली की गद्दी पर बैठा था , लेकिन क़ाज़ी-उलेमाओ के दबाव के आगे उसकी नहीं चली । और उसके पागलपन व स्वच्छदता के चलते सल्तनत का सत्यानाश हो गया। इसके शासनकाल में सैकड़ों हिंदू धर्मान्तरित हुए, यहाँ तक कि हिंदुओ को परेशान करने जज़िया कर ( धार्मिक-यात्रा) लगाया गया। उसने हिंदुओ को प्रलोभन देने , धर्मान्तरित हिंदुओ को वज़ीर तक बनाया।
मुस्लिम सल्तनत को तबाह करने इसके बाद तैमूरलंग (1370-1405) आया। इसने इतनी तबाही मचाई कि दिल्ली शमशान बन गया। उसने अपने मक़सद को अंजाम देने न हिंदुओ को छोड़ा , न मुसलमान को। दो महीने तक दिल्ली में सन्नाटा पसरा रहा। उसके इस बढ़ते अत्याचार से त्रस्त उसी के नियुक्त मुलतान के खिरजखान दिल्ली में क़ब्ज़ा कर लिया और घोषित कर दिया कि अब सैयदों का शासन आ गया है।
इतिहासकारों आर सी मजूमदार, इकराम जकरिया, शालिनी मेहता सहित कईयों ने इस युग के सम्राटों के कारनामों पर कहा है कि सत्ता का संघर्ष ने शरीयत क़ानून और उलेमाओ की ख़ूब अवहेलना की। इस दौर में ज़्यादातर सुल्तानो ने इस्लाम के धर्म विधाओं की बजाय अपनी सुविधा से हुकूमत को हाँका। ज़्यादातर सुल्तानो ने हिंदुओ के हितो के ख़िलाफ़ कुछ भी करने से बचते रहे। कहा जाय तो अब तक दिल्ली सल्तनत में राजा ज़रूर मुस्लिम होते थे लेकिन इस्लामी राज कहना ग़लत है क्योंकि हिंदुओ को उनके धार्मिक रीति रिवाज को मानने से किसी ने नहीं रोका सिवाय तुग़लक़ के। सभी के सभी शासक तानाशाह थे और शरीयत पर चलने का ढोंग करते थे। इन शासकों के दौरान मूर्तियों का वंदना करना, शंख फूँकना, गंगा-जमुना स्नान से लेकर सती प्रथा तक की स्वतंत्रता थी। शरीयत क़ानून सिर्फ़ मुसलमानो पर लागू था।
इसके बाद इब्राहिम लोधी (1517-1526) को हराने के लिए लोधी के ही सामंतो दौलत खान और आलम खान ने बाबर को न्यौता भेजा। पानीपत के मैदान में बाबर ने 15 अप्रेल 1526 को लोधी ख़ानदान के अंतिम शासक को हराकर मुग़ल सल्तनत की नीव रखी।
वैसे देखा जाय तो सन 711  से लेकर 1526 तक यदि मुस्लिम सल्तनत के इतिहास पर नज़र डालें तो खिलजियो और तुग़लक़ों को छोड़ दे तो बाक़ी सुल्तान छोटे-मोटे ही शासक थे , कहने को वे दिल्ली की गद्दी में बैठे थे लेकिन उनका प्रभाव भारत के एकाक हिस्से तक ही सीमित था। अधिकांश जगहों पर हिंदू राजाओं का ही राज था। यहाँ तक कि ग्यारहवी से तेरहवीं सदी तक तो हिंदू शासक ही भारत में राज किये। एकाक प्रांत या हिस्से में ही कोई मुस्लिम शासक था।
चौदहवीं सदी में तो कबीर (1440-1518)  और गुरु नानक देव (1469-1539) ने तो अपने भजनो, पदों व सूक्तियो के माध्यम से दोनो समुदाय को एक करने की कोशिश भी की । यही नहीं इस दौरान खड़ी बोली और पारसी का मिला-जुला रूप भी यदा-कदा दिखने लगा था जो आगे जाकर उर्दू के रूप में विकसित हुई। यहाँ तक कि हिंदू महात्माओं के अलावा मुस्लिम सूफ़ी संतो ने भी भाईचारे को लेकर महत्वपूर्ण कार्य किये।

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