सियासी-फ़सल -२

ऐतिहासिक तथ्य एवम् कथ्य 
मौजूदा सियासत को लेकर जब यह किताब लिखने बैठा हूँ तो मेरी दुविधा यह थी कि इसकी शुरुआत कहाँ से की जाय ? आज़ादी के बाद मिले लोकतांत्रिक व्यवस्था से या फिर कट्टर पंथियो के द्वारा उठाए जाने वाले मुस्लिम और ईसाई ( अंग्रेज़) से, लेकिन तब भी कुछ बातें अधूरी रह जाती इसलिए शुरुआत मैंने सम्राट अशोक के शिलालेख क्रमांक 7 और 8 के उस आदर्श वाक्य से शुरू कर रहा हूँ जो धर्मनिरपेक्ष ढाँचे की सुरक्षा और विकास के लिये संविधान में शामिल किया गया है। यह शिलालेख ई. पू. 250 के आस-पास की है, जो आज भी इस देश के अनुकूल और संगत है-
देवांगा प्रिय, प्रियदर्शी (सम्राट अशोक) की कामना है कि अनेक साम्राज्य के सभी भागों के , सभी सभी धार्मिक पंथो के अनुयायी परस्पर सौमनस्य के साथ जीवन यापन करे। असल में सभी धर्म आत्म संयम और विचार शुद्धि उपलब्ध करना चाहते हैं, लेकिन लोगों के रुझान भिन्न - भिन्न होते हैं  और उनकी भावनाएँ भिन्न-भिन्न होती है, वे या तो अपने कर्तव्यों का पालन समग्र रूप से करते हैं या आंशिक रूप से। लेकिन, अगर कोई व्यक्ति बड़ी उदारता का आचरण करता है लेकिन उसमें आत्म- संभ्व्य , विचार शुद्धि , कृतज्ञता और सुधृढ़ आस्था नहीं है तो फिर वह नितांत निरर्थक है।
प्रियदर्शी सम्राट, देवांगा प्रिय, सभी धर्म समुदायों के व्यक्तियों का , फिर वे चाहे सन्यासी हो या गृहस्थ , दान और विविध प्रकार के उपहार प्रदान कर सम्मान करते हैं, लेकिन देवांगा प्रिय सम्राट की दृष्टि में दान या सम्मान उतना मूल्यवान नहीं हैं जितना यह कि सभी संप्रदायों के अनुयायियों के बीच धर्म के मूल तत्वों का प्रचार-प्रसार और  अभिवृद्धि हो।
और धर्म के मूलभूत तत्वों की अनुभूति कई प्रकार से हो सकती है, लेकिन इसका मूल निहित है, वाणी के संयम अर्थात किही अनुचित अवसरों पर अपने विशिष्ट पंथ का गुणगान या दूसरे पंथो की निंदा नहीं की जानी चाहिये और उचित अवसरों पर भी उसे हर स्थिति में संयत होना चाहिये। उसके विपरीत , सभी प्रसंगों पर, अन्य पंथो-धर्मों का हर प्रकार से सम्मान किया जाना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति इस प्रकार आचरण करता है , तो वह न सिर्फ़ अपने धर्म की अभिवृद्धि करता है बल्कि दूसरे धर्मों को भी लाभान्वित करता है। लेकिन, अगर कोई व्यक्ति इसके विपरीत आचरण करता है तो वह न सिर्फ़ अपने धर्म को क्षति पहुँचाता है बल्कि दूसरे धर्मों को भी हानि पहुँचाता है। इसलिए वाणी पर संयम रखना ज़रूरी है।
और यही देवांगा प्रिय की आकांक्षा है कि सभी धर्मों के लोग भिन्न-भिन्न धर्मों के सिद्धांतों - आदर्शो से सुपरिचित हो और विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करें।
- सम्राट अशोक
वैसे तो भारतीय इतिहास इस प्रकार के अनेक उदाहरणों से भरे भरें हैं लेकिन , वर्तमान में जिस तरह से कट्टर पंथियों के भ्रम जाल में फँसकर युवा अपना और देश के भविष्य पर बाधा बन रहे हैं उन्हें यह सब जानना ज़रूरी है कि अशोक राजा से तपस्वी कैसे और क्यों बने?
वर्तमान राजनीति में जो मुसलमान निशाने बनाए जा रहे हैं वे उस इतिहास के लिए कितने दोषी हैं , और इतिहास का सच क्या है ? इतिहास में साफ़ है कि पहला मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन क़ासिम ने सन 711 में पहली बार सिंध पर आक्रमण किया था । इस कार्रवाई के बारे में ऐतिहासिक तथ्यों के परीक्षण के बाद कहा जा सकता है कि अरब सिपहसलार मुहम्मद बिन क़ासिम ने यह आक्रमण सिंध के राजा दाहिर के कुछ लोगों के द्वारा की गई समुद्री लूट की वजह से हुई। और यहीं से भारत में मुस्लिम शासक की नीव पड़ी। इस जीत के बाद क़ासिम ने गुजरात के सोलंकी राजा , अजमेर के चौहान, दिल्ली के तोमर, मालवा के कच्छपवाह , कन्नौज के परिहार, बंगाल के पाल और बुंदेलखंड के चंदेल राजाओं के साथ अच्छे सम्बंध बनाकर सिंध पर राज करने लगा। क़ासिम व उनके लोगों पर हिंदू प्रजा से दुर्व्यवहार की बात सामने नहीं आई।
इस ऐतिहासिक घटना के बाद मुस्लिम व दूसरे शासकों का ध्यान न केवल भारत की ओर गया बल्कि यह ख़बर भी फैलने लगी कि भारत के कई राजाओं के पास अकूत धन सम्पदा है और यहीं नहीं धार्मिक स्थलों में भी धन सम्पत्ति रखी जाती है।
इन्हीं धन सम्पत्तियों को लूटने के लिए मुहम्मद गजनी ने 1920 में पंजाब के रास्ते भारत प्रवेश किया और इन सम्पत्तियों को लुटने उसने मनमाने तरीक़े से मंदिरो में तोड़-फोड़ की , यहाँ तक की सोमनाथ मंदिर को उसने मनचाहे तरीक़े से न केवल लूटा बल्कि क्षति भी पहुँचाई । इस लूटपाट में वह पंजाब को जीता और अपने साम्राज्य का हिस्सा भी बना लिया । चूँकि महमूद का उद्देश्य धन दौलत लुटना था इसलिए वह लूटपाट कर लौट गया फिर कभी नहीं आया।
लौटने से पहले महमूद ने जो काम किया उस पर भाजपा नेता और प्रसिद्ध लेखक के आर मलकानी ने अपनी किताब “ द पालिटिक्स आफ अयोध्या एंड हिंदू- मुस्लिम रिलेशन “ के पृष्ठ 79 में महमूद का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- यह अफ़ग़ानी शैववाद से इस्लाम में नया-नया धर्मान्तरित व्यक्ति था। यह आला दर्जे का लुटेरा अपने विचारों में काफ़ी धर्मनिरपेक्ष था। उसने अपने भारतीय सिक्कों पर संस्कृत अंकित करवाया और उन पर लक्ष्मी या शिव के नंदी की रूपाकृति बनी हुई है । उसने न सिर्फ़ अपने  सिपाहियों को वरन तिलक, सुन्दर और सेवंद्रम जैसे भारतीय सिपहसलारो को भी अपनी फ़ौज में भर्ती किया।
इतिहास कहता है कि मंदिरो में लूटपाट और मूर्तियाँ तोड़ने का काम केवल धन दौलत बटोरने के लिए किया, उसका कोई धार्मिक कारण नहीं था , उसके द्वारा धर्म परिवर्तन कराने या इस्लाम के प्रचार करने की बात भी तथ्यात्मक नहीं है।
इस बीच भारत के राजा महाराजाओं के पास अकूत धन दौलत की ख़बर फैलने लगी थी और इसी धन दौलत के लालच में ईरानी मूल का एक मामूली सिपहसलार मोहम्मद गौरी ( 1175-1206) ने पंजाब के मुलतान पर हमला किया। इस समय दिल्ली की गद्दी पर पृथ्वीराज चौहान थे, उनकी वीरता के चलते उसे हर बार पराजय का मुँह देखना पड़ा। पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को ग्यारह बार खदेड़ा। लेकिन गौरी बेहद ज़िद्दी था और उसने पृथ्वीराज चौहान के विरोधियों जयचंद और अन्य राजाओं के साथ मिलकर दिल्ली की गद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया।
गौरी का कोई उत्तराधिकारी नहीं था लेकिन उसने अपने जीते जी कई परंतो पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसे पृथ्वीराज चौहान ने ही बंदी हालत में मारा।

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