सियासी - फ़सल -१
प्रस्तावना
भारत के सामने आज हर मोर्चे पर जितनी बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है, वैसी चुनौती पहले कभी नहीं रही। और यह चुनौती दिनो-दिन भयावह होते जा रही है। शिक्षा , स्वास्थ्य , पर्यावरण, पानी से लेकर भाषा , जाति-धर्म और राष्ट्रवाद को लेकर देश में हालात बिगड़ते जा रहे हैं। आर्थिक स्थिति लगातार ख़राब होने लगी है। विदेशी क़र्ज़ा बढ़ता जा रहा है और युवा अपनी भविष्य की चिंता में छटपटाने लगे हैं। किसी भी तरह से सत्ता ही सब कुछ है का नारा अलापते हुए राजनैतिक दलो ने जिस तरह का सियासी फ़सल काटने के लिए धर्म और जाति को हथियार बनाना शुरू किया है , उससे हालात और भी बदतर होने लगा है।
सियासी फ़सल काटने जिस तरह से आम लोगों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है , इसका दुष्परिणाम भी दिखने लगा है। ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को सत्ता तक पहुँचने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश के चलते जिस तरह से सामाजिक सौहार्द पर प्रहार किया है, उससे आपस में विश्वास का संकट खड़ा हो गया है, और कई जगह पर तो वैमनस्यता चरम पर पहुँचने लगा है।
हैरत की बात तो यह है कि इतिहास के गढ़े मुर्दों को उखाड़कर राजनैतिक रोटी सेकने की कोशिश ने भ्रम का ऐसा जाल बुना कि गांधी, पटेल, कलाम, ही नहीं नेहरु इंदिरा और अटल जी तक चले परम्परा को भी तहस- नहस कर दिया है । हालाँकि ऐसा नहीं है कि कट्टरपंथियों ने गांधी से लेकर अटल तक के सफ़र में इस देश के सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश नहीं की है।
सत्ता पर बने रहने के लिए हर समय इस तरह के ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को उभारा जाता रहा है ताकि लोगों का ध्यान बुनियादी ज़रूरतों से हटाया जा सके । अधूरा सच तो पूरा झूठ से ज़्यादा ख़तरनाक होता है और इस देश में वर्तमान सियासी फ़सल को इसी अधूरे सच के साथ काटने की कोशिश ने सत्ता पर बैठने वालों को सर्वसुविधावान और ताक़तवर बना दिया। और बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोग देखते ही रह गए। हालाँकि यह किताब आम आदमी के हिस्से में आए दुर्भाग्यपूर्ण उतार-चढ़ाव को रेखांकित नहीं करता लेकिन यह सियासी फ़सल काटने का मूल्याँकन है ।
१९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तब पाकिस्तान के अलग होने का त्रासदी भी साथ था। और यही त्रासदी सियासत के लिए लहलहाता फ़सल आज भी होगा, यह किसने सोचा था?
इससे पहले सन ७११ में में सिंध पर मुहम्मद क़ासिम के हमले से शुरू हुई मुस्लिम शासकों का लम्बा इतिहास भी आज़ाद भारत में सियासी मुद्दा होगा यह कब कौन सकता था? अरबों की सत्ता से मुग़लों तक की सत्ता और फिर अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी तक के दौर में मध्ययुगीन इतिहास में सामाजिक सौहार्द को देखने की बजाय वर्तमान राजनीति के लिए राजाओं के कारनामे ज़्यादा सुविधाजनक हो गए हैं।
मध्ययुगीन इतिहास का सबसे बड़ा सच तो यह है कि सभी धर्म और जाति के लोगों में प्रेम और सद्भाव की फ़सल लहलहाते रही है। अकबर का सेनापति हिंदू और शिवाजी का सेनापति मुस्लिम रहे हैं। ऐसे अनेको उदाहरण है जब एक दूसरों ने धार्मिक संकीर्णता को परे हटाकर प्रतिभाशलियो को महत्वपूर्ण ओहदे पर बिठाया है। लेकिन यह सच सियासतदारो को चुभता है।
हालाँकि १९४७ का विभाजन एक ऐसी त्रासदी थी जिसे रोका जाना चाहिए था , लेकिन दुर्भाग्यवश परिस्थितियाँ विपरीत होते चली गई , जिसका परिणाम यह देश आज भी भुगत रहा है।
आज़ादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु ने आधुनिक भारत की जो नीव रखी उसमें सरदार पटेल , अब्दुल कलाम आज़ाद तक की भूमिका महत्वपूर्ण रही । विकास के नए द्वार खुले , हालाँकि तब भी जाति धर्म को लेकर विवाद होता रहा लेकिन इंदिरा गांधी के शासनकाल तक सरकार ने जाति धर्म को उभारने वाली ताक़तों को उभरने नहीं दिया। और इस देश के भविष्य को लेकर कई तरह की न केवल योजनाएँ बनाई बल्कि आम लोगों के हित में महत्वपूर्ण सुधार भी हुए।
लेकिन राजीव गांधी के बाद देश में जाति-धर्म को उभारकर जिस तरह की सियासत की जाने लगी उससे देश की हालत ख़राब होने लगी।
ऐसा नहीं है कि नेहरु से इंदिरा काल तक जाति-धर्म को लेकर विवाद नहीं हुआ । दंगे भी हुए और जातियों के नाम पर हत्याएँ तक हुई, लेकिन इन ताक़तवर सत्ता की वजह से यह व्यापक नहीं हो पाया था, या ऐसे तत्व क़ाबू में थे।
नब्बे के दशक में उदारीकरण के दौर ने तो एक तरफ़ जहाँ आम लोगों को हसीन सपने दिखाए तो दूसरी तरफ़ सरकार जनकल्याणकारी योजनाओं से हाथ खींचने लगी । शिक्षा स्वास्थ्य में निजीकरण ने सुविधाएँ तो दी लेकिन महोंगी भी हो गई। पर्यावरण की घोर अनदेखी ने आम आदमी को बीमार करना शुरू कर दिया , जलवायु परिवर्तन ने फ़सलो की दुर्दशा कर दी।
यह देश गाँवो का देश है लेकिन गाँवो से बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन करते लोगों की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। परिणाम स्वरूप आर्थिक असमानता के चलते युवा वर्ग हताशा की ओर जाने लगे या अपराध और नशा में अपने को झोंककर बर्बादी की कगार तक पहुँच गए।
अतीत की ग़लतियों आधार बनाकर भ्रम फैलाकर सत्ता तो हासिल की जा रही है लेकिन आम लोगों के लिए क्या किया जा रहा है? इंडिया और भारत में बँटते देश में हिंदुस्तान की खोज का क्या परिणाम होगा ? इसे समझने के लिए मशहूर उर्दू शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी के इस शेर को याद करना चाहिए-
सरज़मीने हिंद के अफ़वामें आलम के फ़िराक़,
क़ाफ़िले बसते गए, हिंदुस्तान बनता गया।
फ़िराक़ गोरखपुरी के इस शेर के माध्यम से इस देश में सभी धर्मों की प्रगति की जो बात कही है , वह प्रगति कहाँ हैं।
सवाल यह नहीं है कि सियासी सत्ता के लिए ग़ैर ज़रूरी मुद्दे उठाकर सत्ता हासिल कर ली जा रही है बल्कि उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सत्ता हासिल करने के बाद बुनियादी ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान देने की बजाय सत्ता बनाए रखने की कोशिश में देश को लूटा ही जा रहा है , नफ़रत की ऐसी राजनीति की जा रही है , जिससे इस देश का भला हो ही नहीं सकता।
सच तो यह है कि राजनैतिक दलो का काम संगठित गिरोह की तरह होने लगा है। जो अपनी सुविधा के लिए काम करता है। उन्हें आम लोगों की बुनियादी ज़रूरतों से तभी तक मतलब होता है , जब विरोध के स्वर तेज़ हो जाते हैं या उनके लिए असहज होता है।
इस सबके लिए सभी धर्म, जाति और भाषा के वे लोग भी ज़िम्मेदार हैं जो अपनी संस्कृति और परम्परा के नाम पर किसी भी बदलाव को अपने धर्म पर हमला बताते रहते हैं। जिसका सियासी लोग फ़ायदा उठाते हैं, और कट्टरपंथियों को अपनी ठेकेदारी करने का मौक़ा मिल जाता है ।
ऐसे में क्या सरकार पर बुनियादी ज़रूरतों के लिए दबाव नहीं डाला जाना चाहिए। इस देश का बड़ा हिस्सा ग्रामीण परिवेश है और इसके लिए नीति तो बनाया ही जाना चाहिए। धर्म-जाति और भाषा को लेकर भी विवाद को तूल देने वालों पर कठोर क़ानून बने। तभी इस देश को विकसित राष्ट्र की श्रेणी में लाया जा सकता है।
सत्ता के लिए जाति-धर्म और भाषा को लेकर किए जा रहे राजनीति के चलते ही मौजूदा हालात में भारतीय समाज की एकजुटता तो प्रभावित हुई है देश के बाहर भी भारत की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ा है। यही नहीं इस तरह की राजनीति के चलते कई जगहों पर वे लोग भी सत्ता से बाहर होते चले गए जो विकास के लिए वैज्ञानिक सोच रखते थे। राजनैतिक पार्टियों ने भी सीटों का बँटवारा जाति धर्म भाषा के आधार पर किया। यहाँ तक कि मंत्रिमंडल भी सामाजिक फ़ायदे को देखकर बनाए जाने लगे। और ऐसे कई महत्वपूर्ण वर्ग को किनारे किया जाने लगा चाहे वे कितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हो।
आम तौर पर यह सच है कि किसी भी देश के लिए यह कल्याणकारी नहीं है कि एक समूचे जाति या धर्म की उपेक्षा सिर्फ़ इसलिए कर दी जाय क्योंकि उसकी उपेक्षा से हमारी राजनीति सधती है। यही वजह है कि डॉक्टर अम्बेडकर ने गोलमेज़ परिषद की बैठक में अनुसूचित जातियों के लिए अलग निर्वाचन की माँग की थी। ताकि उनके समाज की बातों को प्रभावी ढंग से रखा जा सके। ऐसी ही माँग मुस्लिमों के लिए भी हुई लेकिन आज़ादी के बाद यह ख़ारिज हो गई। यही नहीं मंडल कमीशन के लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग की राजनीति ने इस देश में जो तूफ़ान खड़ा किया वह किसी से छिपा नहीं है। जाति और धर्म ही नहीं भाषा को लेकर भी जिस तरह से संकीर्णता दिखाई गई उसका भी नुक़सान देश को हुआ है। यह मुद्दा भी बेमतलब का था लेकिन सत्ता की फ़सल काटने के लिए इसे भी मुद्दा बनाया गया , जिसका सबसे ज़्यादा नुक़सान उर्दू को हुआ। एक समय उर्दू को हिंदी के बराबर माना जाता था और आमिर खुसरो , कबीर से लेकर मीरा बाईं से चलते फ़िराक़ गोरखपुरी यानी रघुवीर सहाय जैसे शख़्सियतों ने इसे अपनाया लेकिन उसे साम्प्रदायिक बना दिया गया।
सियासत का दुर्भाग्यजनक पहलू तो यह भी है कि अनुसूचित जाति और जनजाति को प्रतिनिधित्व तो दिया लेकिन राजनैतिक दलों के दमदार तपको ने इस प्रतिनिधित्व को उभरने का मौक़ा नहीं दिया। और यदि किसी ने उभरने की कोशिश की भी तो उन्हें भ्रष्टाचार या दूसरे मामले में बदनाम कर दिया गया। लेकिन अल्पसंख्यकों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व की बात ही नहीं हुई। परिणामस्वरूप उन्हें अपनी बात कहने के लिए बहुसंख्यको पर ही निर्भर रहना पड़ा।
कुल मिलाकर बहुसंख्यक समाज को गुमराह करने के हथकंडो ने बुनियादी ज़रूरतों को दरकिनार कर दिया और मौजूदा हालात को बदतर करने में ही सहयोग किया ।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि मौजूदा परिस्थितियों में मीडिया की भूमिका भी हैरान कर देने वाली है । अस्सी के दशक तक जाति-धर्म और भाषा की सियासत के ख़िलाफ़ डटकर खड़े होने वाला मीडिया अब सत्ता के साथ खड़ा होने लगा है । और अपनी लोकप्रियता के लिए सनसनी फैलाने का काम ही नहीं करता बल्कि भावना भड़काने की कोशिश में भी लगा रहता है।
ऐसे में जब देश में बुनियादी ज़रूरतों की कमी ने आम लोगों की तकलीफ़े बढ़ा दी तब आने वाले दिनो में उत्पन्न होने वाली भयावह स्थिति की सम्भावना से विचलित होना स्वाभाविक है।
भारत के सामने आज हर मोर्चे पर जितनी बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है, वैसी चुनौती पहले कभी नहीं रही। और यह चुनौती दिनो-दिन भयावह होते जा रही है। शिक्षा , स्वास्थ्य , पर्यावरण, पानी से लेकर भाषा , जाति-धर्म और राष्ट्रवाद को लेकर देश में हालात बिगड़ते जा रहे हैं। आर्थिक स्थिति लगातार ख़राब होने लगी है। विदेशी क़र्ज़ा बढ़ता जा रहा है और युवा अपनी भविष्य की चिंता में छटपटाने लगे हैं। किसी भी तरह से सत्ता ही सब कुछ है का नारा अलापते हुए राजनैतिक दलो ने जिस तरह का सियासी फ़सल काटने के लिए धर्म और जाति को हथियार बनाना शुरू किया है , उससे हालात और भी बदतर होने लगा है।
सियासी फ़सल काटने जिस तरह से आम लोगों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है , इसका दुष्परिणाम भी दिखने लगा है। ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को सत्ता तक पहुँचने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश के चलते जिस तरह से सामाजिक सौहार्द पर प्रहार किया है, उससे आपस में विश्वास का संकट खड़ा हो गया है, और कई जगह पर तो वैमनस्यता चरम पर पहुँचने लगा है।
हैरत की बात तो यह है कि इतिहास के गढ़े मुर्दों को उखाड़कर राजनैतिक रोटी सेकने की कोशिश ने भ्रम का ऐसा जाल बुना कि गांधी, पटेल, कलाम, ही नहीं नेहरु इंदिरा और अटल जी तक चले परम्परा को भी तहस- नहस कर दिया है । हालाँकि ऐसा नहीं है कि कट्टरपंथियों ने गांधी से लेकर अटल तक के सफ़र में इस देश के सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश नहीं की है।
सत्ता पर बने रहने के लिए हर समय इस तरह के ग़ैर ज़रूरी मुद्दों को उभारा जाता रहा है ताकि लोगों का ध्यान बुनियादी ज़रूरतों से हटाया जा सके । अधूरा सच तो पूरा झूठ से ज़्यादा ख़तरनाक होता है और इस देश में वर्तमान सियासी फ़सल को इसी अधूरे सच के साथ काटने की कोशिश ने सत्ता पर बैठने वालों को सर्वसुविधावान और ताक़तवर बना दिया। और बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोग देखते ही रह गए। हालाँकि यह किताब आम आदमी के हिस्से में आए दुर्भाग्यपूर्ण उतार-चढ़ाव को रेखांकित नहीं करता लेकिन यह सियासी फ़सल काटने का मूल्याँकन है ।
१९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तब पाकिस्तान के अलग होने का त्रासदी भी साथ था। और यही त्रासदी सियासत के लिए लहलहाता फ़सल आज भी होगा, यह किसने सोचा था?
इससे पहले सन ७११ में में सिंध पर मुहम्मद क़ासिम के हमले से शुरू हुई मुस्लिम शासकों का लम्बा इतिहास भी आज़ाद भारत में सियासी मुद्दा होगा यह कब कौन सकता था? अरबों की सत्ता से मुग़लों तक की सत्ता और फिर अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी तक के दौर में मध्ययुगीन इतिहास में सामाजिक सौहार्द को देखने की बजाय वर्तमान राजनीति के लिए राजाओं के कारनामे ज़्यादा सुविधाजनक हो गए हैं।
मध्ययुगीन इतिहास का सबसे बड़ा सच तो यह है कि सभी धर्म और जाति के लोगों में प्रेम और सद्भाव की फ़सल लहलहाते रही है। अकबर का सेनापति हिंदू और शिवाजी का सेनापति मुस्लिम रहे हैं। ऐसे अनेको उदाहरण है जब एक दूसरों ने धार्मिक संकीर्णता को परे हटाकर प्रतिभाशलियो को महत्वपूर्ण ओहदे पर बिठाया है। लेकिन यह सच सियासतदारो को चुभता है।
हालाँकि १९४७ का विभाजन एक ऐसी त्रासदी थी जिसे रोका जाना चाहिए था , लेकिन दुर्भाग्यवश परिस्थितियाँ विपरीत होते चली गई , जिसका परिणाम यह देश आज भी भुगत रहा है।
आज़ादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु ने आधुनिक भारत की जो नीव रखी उसमें सरदार पटेल , अब्दुल कलाम आज़ाद तक की भूमिका महत्वपूर्ण रही । विकास के नए द्वार खुले , हालाँकि तब भी जाति धर्म को लेकर विवाद होता रहा लेकिन इंदिरा गांधी के शासनकाल तक सरकार ने जाति धर्म को उभारने वाली ताक़तों को उभरने नहीं दिया। और इस देश के भविष्य को लेकर कई तरह की न केवल योजनाएँ बनाई बल्कि आम लोगों के हित में महत्वपूर्ण सुधार भी हुए।
लेकिन राजीव गांधी के बाद देश में जाति-धर्म को उभारकर जिस तरह की सियासत की जाने लगी उससे देश की हालत ख़राब होने लगी।
ऐसा नहीं है कि नेहरु से इंदिरा काल तक जाति-धर्म को लेकर विवाद नहीं हुआ । दंगे भी हुए और जातियों के नाम पर हत्याएँ तक हुई, लेकिन इन ताक़तवर सत्ता की वजह से यह व्यापक नहीं हो पाया था, या ऐसे तत्व क़ाबू में थे।
नब्बे के दशक में उदारीकरण के दौर ने तो एक तरफ़ जहाँ आम लोगों को हसीन सपने दिखाए तो दूसरी तरफ़ सरकार जनकल्याणकारी योजनाओं से हाथ खींचने लगी । शिक्षा स्वास्थ्य में निजीकरण ने सुविधाएँ तो दी लेकिन महोंगी भी हो गई। पर्यावरण की घोर अनदेखी ने आम आदमी को बीमार करना शुरू कर दिया , जलवायु परिवर्तन ने फ़सलो की दुर्दशा कर दी।
यह देश गाँवो का देश है लेकिन गाँवो से बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन करते लोगों की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। परिणाम स्वरूप आर्थिक असमानता के चलते युवा वर्ग हताशा की ओर जाने लगे या अपराध और नशा में अपने को झोंककर बर्बादी की कगार तक पहुँच गए।
अतीत की ग़लतियों आधार बनाकर भ्रम फैलाकर सत्ता तो हासिल की जा रही है लेकिन आम लोगों के लिए क्या किया जा रहा है? इंडिया और भारत में बँटते देश में हिंदुस्तान की खोज का क्या परिणाम होगा ? इसे समझने के लिए मशहूर उर्दू शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी के इस शेर को याद करना चाहिए-
सरज़मीने हिंद के अफ़वामें आलम के फ़िराक़,
क़ाफ़िले बसते गए, हिंदुस्तान बनता गया।
फ़िराक़ गोरखपुरी के इस शेर के माध्यम से इस देश में सभी धर्मों की प्रगति की जो बात कही है , वह प्रगति कहाँ हैं।
सवाल यह नहीं है कि सियासी सत्ता के लिए ग़ैर ज़रूरी मुद्दे उठाकर सत्ता हासिल कर ली जा रही है बल्कि उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सत्ता हासिल करने के बाद बुनियादी ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान देने की बजाय सत्ता बनाए रखने की कोशिश में देश को लूटा ही जा रहा है , नफ़रत की ऐसी राजनीति की जा रही है , जिससे इस देश का भला हो ही नहीं सकता।
सच तो यह है कि राजनैतिक दलो का काम संगठित गिरोह की तरह होने लगा है। जो अपनी सुविधा के लिए काम करता है। उन्हें आम लोगों की बुनियादी ज़रूरतों से तभी तक मतलब होता है , जब विरोध के स्वर तेज़ हो जाते हैं या उनके लिए असहज होता है।
इस सबके लिए सभी धर्म, जाति और भाषा के वे लोग भी ज़िम्मेदार हैं जो अपनी संस्कृति और परम्परा के नाम पर किसी भी बदलाव को अपने धर्म पर हमला बताते रहते हैं। जिसका सियासी लोग फ़ायदा उठाते हैं, और कट्टरपंथियों को अपनी ठेकेदारी करने का मौक़ा मिल जाता है ।
ऐसे में क्या सरकार पर बुनियादी ज़रूरतों के लिए दबाव नहीं डाला जाना चाहिए। इस देश का बड़ा हिस्सा ग्रामीण परिवेश है और इसके लिए नीति तो बनाया ही जाना चाहिए। धर्म-जाति और भाषा को लेकर भी विवाद को तूल देने वालों पर कठोर क़ानून बने। तभी इस देश को विकसित राष्ट्र की श्रेणी में लाया जा सकता है।
सत्ता के लिए जाति-धर्म और भाषा को लेकर किए जा रहे राजनीति के चलते ही मौजूदा हालात में भारतीय समाज की एकजुटता तो प्रभावित हुई है देश के बाहर भी भारत की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ा है। यही नहीं इस तरह की राजनीति के चलते कई जगहों पर वे लोग भी सत्ता से बाहर होते चले गए जो विकास के लिए वैज्ञानिक सोच रखते थे। राजनैतिक पार्टियों ने भी सीटों का बँटवारा जाति धर्म भाषा के आधार पर किया। यहाँ तक कि मंत्रिमंडल भी सामाजिक फ़ायदे को देखकर बनाए जाने लगे। और ऐसे कई महत्वपूर्ण वर्ग को किनारे किया जाने लगा चाहे वे कितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हो।
आम तौर पर यह सच है कि किसी भी देश के लिए यह कल्याणकारी नहीं है कि एक समूचे जाति या धर्म की उपेक्षा सिर्फ़ इसलिए कर दी जाय क्योंकि उसकी उपेक्षा से हमारी राजनीति सधती है। यही वजह है कि डॉक्टर अम्बेडकर ने गोलमेज़ परिषद की बैठक में अनुसूचित जातियों के लिए अलग निर्वाचन की माँग की थी। ताकि उनके समाज की बातों को प्रभावी ढंग से रखा जा सके। ऐसी ही माँग मुस्लिमों के लिए भी हुई लेकिन आज़ादी के बाद यह ख़ारिज हो गई। यही नहीं मंडल कमीशन के लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग की राजनीति ने इस देश में जो तूफ़ान खड़ा किया वह किसी से छिपा नहीं है। जाति और धर्म ही नहीं भाषा को लेकर भी जिस तरह से संकीर्णता दिखाई गई उसका भी नुक़सान देश को हुआ है। यह मुद्दा भी बेमतलब का था लेकिन सत्ता की फ़सल काटने के लिए इसे भी मुद्दा बनाया गया , जिसका सबसे ज़्यादा नुक़सान उर्दू को हुआ। एक समय उर्दू को हिंदी के बराबर माना जाता था और आमिर खुसरो , कबीर से लेकर मीरा बाईं से चलते फ़िराक़ गोरखपुरी यानी रघुवीर सहाय जैसे शख़्सियतों ने इसे अपनाया लेकिन उसे साम्प्रदायिक बना दिया गया।
सियासत का दुर्भाग्यजनक पहलू तो यह भी है कि अनुसूचित जाति और जनजाति को प्रतिनिधित्व तो दिया लेकिन राजनैतिक दलों के दमदार तपको ने इस प्रतिनिधित्व को उभरने का मौक़ा नहीं दिया। और यदि किसी ने उभरने की कोशिश की भी तो उन्हें भ्रष्टाचार या दूसरे मामले में बदनाम कर दिया गया। लेकिन अल्पसंख्यकों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व की बात ही नहीं हुई। परिणामस्वरूप उन्हें अपनी बात कहने के लिए बहुसंख्यको पर ही निर्भर रहना पड़ा।
कुल मिलाकर बहुसंख्यक समाज को गुमराह करने के हथकंडो ने बुनियादी ज़रूरतों को दरकिनार कर दिया और मौजूदा हालात को बदतर करने में ही सहयोग किया ।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि मौजूदा परिस्थितियों में मीडिया की भूमिका भी हैरान कर देने वाली है । अस्सी के दशक तक जाति-धर्म और भाषा की सियासत के ख़िलाफ़ डटकर खड़े होने वाला मीडिया अब सत्ता के साथ खड़ा होने लगा है । और अपनी लोकप्रियता के लिए सनसनी फैलाने का काम ही नहीं करता बल्कि भावना भड़काने की कोशिश में भी लगा रहता है।
ऐसे में जब देश में बुनियादी ज़रूरतों की कमी ने आम लोगों की तकलीफ़े बढ़ा दी तब आने वाले दिनो में उत्पन्न होने वाली भयावह स्थिति की सम्भावना से विचलित होना स्वाभाविक है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें