सियासी - फ़सल

भूमिका
देश की वर्तमान स्थिति को जब मैं देखता हूँ, तो इसके भविष्य को लेकर चिंतित हो जाता हूँ । आज़ादी के बाद से हालात जिस तरह से बदलें हैं उससे राजनैतिक दलों के लिए सत्ता ही सब कुछ होकर रह गया है।
बस्तर जैसे दूरस्थ आदिवासी अंचलो में मलेरिया जैसी बीमारी से लोग मर रहे हैं, तो महँगी होती चिकित्सा सेवा ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है। शिक्षा की कोई नीति ही ठीक से नहीं बन पाई है। अब जब ग़रीब से ग़रीब आदमी भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहता है। तब सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बजाय आम लोगों को निजी स्कूलों की लूट में झोंक देने की सरकारी नीति , क्या अत्याचार नहीं है ? कृषि प्रधान इस देश में हर साल लाखों किसान मर रहे हैं। बेरोज़गारी सुरसा की तरह मुँह खोले खड़ा है, पानी का संकट विकराल होने लगा है। प्रदूषण के चलते देश की राजधानी गैस चेंबर बन चुका है , नदियाँ सूखते जा रही है तालाबे पाटी जा रही है।
सियासतदारो को तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी चिंता रह गई है विधानसभा से लेकर संसद तक पहुँचने वाले कथित जनप्रतिनिधियो की सुविधा हैरान करने वाली है। वीआईपी संस्कृति चरम पर है । और पूरा प्रशासन तंत्र माफ़िया लोगों के साथ मिलकर लूट-खसोट में लगा है। तब आम आदमी के लिए क्या बच रहा है , इसकी चिंता न राजनैतिक दलो को है , और न ही सरकार को?
हर पाँच साल में होने वाले चुनावों में आम आदमी से जुड़े मुद्दे ग़ायब होते जा रहे हैं। शिक्षा . स्वास्थय , पर्यावरण , जल, खेती, महँगाई, बेरोज़गारी चुनाव का मुद्दा ही नहीं बन पाता और सत्ता का फ़सल काटने जिस तरह से भ्रष्टाचार , हिंदू-मुस्लिम , मंदिर-मस्जिद, राष्ट्रवाद, जाति-धर्म को मुद्दे बनाकर , अमर्यादित भाषा को मुद्दे बनाकर जनता को भरमाकर सत्ता हासिल किए जा रहे हैं, वह इस देश के आम लोगों के लिए चिंता का विषय तो होना ही चाहिए , देश की प्रगति के लिए भी बाधक है।
एक तरफ़ हमारे वैज्ञानिक चाँद और मंगल ग्रह पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं और दूसरी तरफ़ हम हथियार की होड़ में शामिल होकर बर्बादी की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। एक तरफ़ हमारे कथित जनप्रतिनिधि अपनी राजशी ठाट बढ़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ बुनियादी सुविधाओं के अभाव में एक बड़ा तपका नारकिय जीवन जीने मजबूर है।
झूठ ,प्रपंच , जाति, धर्म के नाम पर सियासी फ़सल काटने की कोशिश ने देश के साझी विरासत को छिन्न-भिन्न कर दिया है । क्या यह सियासत देश में गृह-युद्ध जैसे हालात पैदा नहीं कर रहे है ?
इस पर मेरी रिपोर्ट ...
- कौशल तिवारी

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